Thursday 11 August 2016

कुछ सवाल 'स्मिता' से

 "सलाम करता हूँ हुजूर के जज्बे, ईमानदारी और सर झुकाता हूँ उनकी कर्तव्यनिष्ठा पर जिन्होंने बारिश से भीगते जूते तो बचा लिए पर खुद तरबतर होकर यातायात व्यवस्था सँभालते रहे। सोशल मीडिया पर पिछले दिनों ये पोस्ट आई तो लगा मुझे भी कुछ कह लेना चाहिए, पोस्ट में बात ही कुछ ऐसी लिखी है । पोस्ट सोशल मीडिया पर वायरल हुई, जिसमें एक कर्तव्यनिष्ठ सिपाही की बारिश में भीगती हुई तस्वीर है । पोस्ट में लगी तस्वीर निःसंदेह उस सिपाही की कार्यदक्षता को प्रमाणित करती है जिसे न बारिश की नमी से खीज उठती है, ना ही उसे लू के थपेड़ों से डर लगता होगा।" ये पोस्ट सोशल मीडिया के पते पर मुझे मिली, पतेदार का नाम स्मिता तांडी  है। नाम काफी मक़बूल है, फिर भी उन लोगों से इस नाम का तार्रुख़ जरूरी है जो स्मिता को नहीं जानते। पेशे से छत्तीसगढ़ पुलिस में सेवारत हैं, मोहतरमा का दूसरा परिचय भी है, जो शायद पुलिस सेवा से ज्यादा बड़ा है। पारिवारिक जिम्मेवारियाँ , पुलिस की नौकरी के साथ-साथ सामाजिक कर्तव्यों का पालन करना मोहतरमा की नियमित दिनचर्या में शामिल हैं। स्मिता का नज़रिया मुझे पुलिसिया कम, मानवीय ज्यादा नज़र आता है। चूँकि मेरी फेसबुक पर मित्र हैं लिहाजा उनकी पोस्ट के जरिये मानव सेवा की तस्वीरें रोज देखता रहता हूँ। एक सामाजिक संस्था की सदस्य हैं जिसका काम जरूरतमंदों को हर संभव मदद करना है। उनकी संस्था [जीवनदीप] ने कई ज़िन्दगी आबाद की, कइयों को बिछड़े माँ-पिता से मिलवाया तो कई घरों में उम्मीद की नई रोशनी पहुँचाई। आप साधुवाद की सिर्फ हकदार नहीं, बल्कि आपकी पूरी टीम बिगड़ते परिवेश में मानवीय मूल्यों को सहेजने की कोशिशों में अब तक सफल हैं।
                           स्मिता जी, मैंने पुलिस और पुलिसिया गतिविधियों को करीब से देखा है। सच कह रहा हूँ कभी अच्छा लिखने का मन ही नहीं हुआ, मैं ये नहीं कहता इस देश का पुलिस परिवार अच्छा नहीं है लेकिन उनकी संख्या उस भीड़ में नहीं के बराबर है जहां खाकी से लिपटा अधिकाँश चेहरा भ्रष्ट, बेईमान है। वो अमानवीय कृत्यों की घिनौनी मंडी में अपनी पारी का इंतज़ार करता खड़ा नज़र आता है। आपने जिस पोस्ट के जरिये पुलिसिया जनभक्ति की एक तस्वीर प्रस्तुत की वो सही मायने में एक ईमानदार इंसान की हो, जिसे अपने कर्तव्यपथ में बारिश की नमी से न खीज उठती है ना ही लू के थपेड़ों से सेहत का मिज़ाज़  बदलता है, पर ऐसे ईमान की रोटी खाने वालों की जरूरत कितनों को है ? अगर हुजूर ज्यादा कर्तव्यनिष्ठ और ईमानदारी की रोटी खाते है तो मातहतों का हाजमा खराब रहता होगा या फिर हजूर को उनके हुक्मरान चैन की नींद नहीं लेने देंगे। चौराहे पर खड़ा सिपाही नियम-कायदे को जूते की नोक पर रखने वालों को नहीं देख पाता । उसकी नज़र सिर्फ कमजोर और बेबस को तलाशती रहती है, ताकि ड्यूटी का वक्त ख़त्म होने तक वर्दी की जेब भारी हो सके। यही हाल थानों, दफ्तरों में हैं। विडम्बना तो यही है हम बाज़ार में भीड़ से मानवता और नैतिक मूल्यों की उम्मीद रखतें है जबकि उसका अभाव हमारे परिवार [संस्था-विभाग] में अधिक होता है। देश के भिन्न-भिन्न सूबों से पुलिसिया कार्यशैली की ख़बरें सामने आती रहती हैं। उन ख़बरों में प्राथमिकता जरूर पुलिस की गैरवाजिब करतूतें, क्रूरता की होती हैं। क्या कीजियेगा बाज़ार की मांग के मुताबिक़ जबसे अख़बार और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की मंडी में ख़बरों में तड़का लगने लगा तब से अधिकाँश काले कारोबारियों को लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ का मालिकाना हक़ मिल गया। हम तो बस उस रसोइये की भूमिका में हैं जिसे हर ग्राहक की ज़बान के मुताबिक़ स्वाद परोसना है। हाँ शुक्र है सोशल मीडिया का जहाँ काफी कुछ लिखने, बोलने की आज़ादी है। 
 लिखते-लिखते हुजूर को भूल गया, चलिए मुद्दे पर आता हूँ। स्मिता जी आपकी पोस्ट जिसे आपने किसी राहुल शर्मा जी के फेसबुक पेज से लिया और काफी कुछ लिखकर उसे जनहित से जुड़ा मसला बताते हुए शेयर करने की अपील की। पोस्ट के जरिये आपका मकसद नकारा-निकम्मे लोगों को प्रेरणा देना और उनमें देशभक्ति-कर्तव्यनिष्ठा की भावना जागृत करना है। सच बताइयेगा, क्या जो सोने का अभिनय कर रहें हैं उन्हें जगाया जा सकता है ? क्या उन लोगों में देशभक्ति-कर्तव्यनिष्ठा की उम्मीद दिखाई पड़ती है जो सिर्फ पैसों के लिए श्रम कर रहें हैं ? क्या वो लोग मानवीय नज़रिये से किसी बात को देखते हैं जिनका ईमान बाज़ार में बैठी किसी तवायफ की दहलीज़ पर नंगा पड़ा है ? क्या उनसे कोई उम्मीद की जा सकती है जो अपने-अपने आकाओं के जूतों की गर्द झाड़कर नौकरी की सलामती का ढोल पीट रहें हैं ? हम किसी ना किसी रूप में बेईमान हैं, जब भी देखता हूँ किसी बेईमान को तो सोचने लगता हूँ आखिर इसका अधिकतम मूल्य क्या होगा ? हालांकि इस तरह की जमात वालों का हुलिया ही उनकी कीमत का अघोषित टैग होता है। आपकी उस पोस्ट में पत्रकारों की मानसिकता और उनकी असंवेदनशीलता का जिक्र भी है। जरूरी भी है, पत्रकार ? इस दौर में पत्रकारिता की तलाश ठीक उसी तरह है जैसे किसी बच्चे के हाथ से मोबाइल छीनकर "चाचा चौधरी" वाला कॉमिक्स पकड़ा देना। सब प्रायोजित है, ठीक करने की मानसिकता से रंगा हुआ है। अब सामजिक सरोकार को कहीं कोई जगह नहीं मिलती, ना ख़बरों में न ही जनसेवा-देशभक्ति की शपथ लेने वालों में। ऐसे में आपकी अपील कितनी सार्थक होगी ? मैं नही बता सकता, पर यक़ीन मानिये यहाँ कोई नहीं सुनता, बस हम शोर मचाते रह जाते हैं। वैसे भी कुनबा जिनका बड़ा होता है वे अपने-अपने स्तर पर मजबूत होते हैं। ऐसे में हरियाणा के सोनीपत का ये जवान जिसका नाम राकेश कुमार है वो बारिश में भीगकर कर्तव्य की मिसाल पेश करे या फिर परिवार की खुशियों को ताक पर रख दें किसी को फर्क नहीं पड़ता। 
  एक बार फिर पुलिसकर्मी राकेश और मोहतरमा स्मिता जी को नमन जिन्होंने मानवीय संवेदनाओं के साथ-साथ कर्तव्यों की राह पर ईमानदारी से चलने की कम से कम कोशिश तो की है। 

7 Comments:

At 11 August 2016 at 20:25 , Blogger nav said...

बेहतरीन तमाचा! लेकिन अफसोस इसे तमाचे के रूप में किसने देखा। आपने सही कहा कि क्या जो सोने का अभिनय कर रहें हैं उन्हें जगाया जा सकता है ?

 
At 11 August 2016 at 21:49 , Blogger Rupesh kumar verma said...

bahut sundar pryas nahi hakikat hai

 
At 12 August 2016 at 00:51 , Blogger todaychhattisgarh said...

देश सो रहा है

 
At 12 August 2016 at 00:53 , Blogger todaychhattisgarh said...

कोशिशें जारी है !

 
At 12 August 2016 at 01:01 , Blogger Unknown said...

" मैं ये नहीं कहता इस देश का पुलिस परिवार अच्छा नहीं है लेकिन उनकी संख्या उस भीड़ में नहीं के बराबर है जहां खाकी से लिपटा अधिकाँश चेहरा भ्रष्ट, बेईमान है। वो अमानवीय कृत्यों की घिनौनी मंडी में अपनी पारी का इंतज़ार करता खड़ा नज़र आता है। "
...............वाह बहुत खूब। सच का आईना

 
At 13 August 2016 at 00:47 , Blogger vijay said...

शानदार सर ।

 
At 13 August 2016 at 00:47 , Blogger vijay said...

शानदार सर ।

 

Post a Comment

Subscribe to Post Comments [Atom]

<< Home