Monday 6 February 2017

90 बरस में 23 साल आदिवासियों को समर्पित

 आज के भौतिकवादी युग में चारो ओर स्वार्थ और मक्कारी का बोलबाला है। पिता-पुत्र हो या भाई-भाई सारे रिश्ते कही-ना-कही स्वार्थ परक को प्रस्तुत करते है। स्वार्थ और मक्कारी के इस दौर में एक शख्स ऐसा भी है जिसने मानवता की मूल भावना को फलीभूत करते हुए 'वसुधेव कुटुम्बकम' के सिद्धांत को अपने आप में आत्मसात कर रखा है। वो शख्स आदिवासियों के दुःख में दुखी होता है तो उनकी खुशियों में परम् आनंद तलाश लेता है। कई जगह से सिला हुआ खादी का मटमैला कुर्ता, कुछ उसी रंगत का पायजामा, गले में एक मफलर और कमर तक लटकता कंधे पर टँगा खादी का झोला। ये हुलिया उस शख्सियत की पहचान है जिसका नाम डॉक्टर 'प्रभुदत्त खैरा' है। 
करीब पौने छः फुट और प्रफुल्लित मन के डॉक्टर खैरा गरीबो, आदिवासियों के आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक उत्त्थान के लिए पूरी तरह समर्पित है। बिलासपुर से अमरकंटक मार्ग पर ग्राम लमनी [अचानकमार टाइगर रिजर्व ] को अपनी कर्मस्थली बना चुके डॉक्टर प्रभुदत्त खैरा को देखकर यकायक किसी सूफी संत या दरवेश की याद तरोताजा हो जाती है। खादी के कुरते-पायजामे में लिपटा गौर वर्ण का वो शख्स उम्र के नौ दशक पूरा करने को है। 89 बरस के डॉक्टर 'प्रभुदत्त खैरा' आदिवासियों के बीच 'खैरा गुरूजी' और 'दिल्ली वाले साहब' के नाम से पहचाने जाते हैं। आदिवासी अंचल के अलावा उस इलाके से वाकिफ हर इंसान के लिए ये नाम आत्मीयता का पर्याय है। हर रोज सुबह गुरूजी दैनिक नित्य-कर्म से निपटने के बाद लमनी के एक छोटे से होटल में बिना दूध वाली चाय की चुस्की लेना नहीं भूलते। इसके बाद शुरू होता है गाँव की परिक्रमा का दौर, गाँव के हर घर की चौखट पर डॉक्टर खैरा की दस्तक होती है। आदिवासी अपनी सभ्यता-संस्कृति के अनुरूप डॉक्टर खैरा का आत्मीयता से स्वागत भी करते है। एक-एक व्यक्ति का हालचाल पूछते डॉक्टर खैरा गांव के नुक्कड़ पर पहुँचते है। इसके बाद पढ़ने-पढाने का सिलसिला शुरू होता है, बिना कापी-पुस्तक के भी डॉक्टर खैरा बच्चो को काफी कुछ सिखाते-बताते है । कपडे सिलकर पहनने, हाथ धोकर खाना खाने की आदत डॉक्टर खैरा बच्चो में डलवा चुके है। डॉक्टर खैरा के कंधे पर टंगे खादी के झोले में चाकलेट,बिस्किट,आंवला,चना और कुछ दवाइया होती है। खेल-खेल में पढाई, फिर झोले से खाने की चीजो को निकालकर गुरूजी सबको थोडा-थोडा हर रोज बाँटते है। जंगल में रहने वालो को आंवला,हर्रा,बहेरा और अन्य वनोषधि के अलावा फल-फूल के महत्व से रूबरू करवाना गुरूजी नही भूलते। जंगल में रहने वाले आदिवासी बच्चो के बीच शिक्षा की अनिवार्यता के मद्देनजर उनकी कोशिश होती है कि उन्हें आज के दौर और ज्ञान-विज्ञान के साथ-साथ प्रकृति की भी जानकारी मिले। डॉक्टर प्रभुदत्त खैरा का पिछले दो दशक से प्रयास है कि प्रत्येक आदिवासी और उनके बच्चे शिक्षित होने के साथ अपनी संस्कृति और सभ्यता को बचाये रखें। 
  आदिवासियों के बीच जिंदगी को एक नई पहचान देने वाले डॉक्टर खैरा की निजी दास्ताँ कम संघर्षपूर्ण नही है। सन 1928 में लाहौर [पाकिस्तान] में जन्मे डॉक्टर खैरा की प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा लाहौर में ही हुई। सन 1947 में भारत विभाजन का दंश झेल चुका डॉक्टर खैरा का परिवार दिल्ली आ गया। हिन्दू राव विश्विद्यालय दिल्ली से समाजशास्त्र में मास्टर डिग्री और 1971 में पीएचडी की उपाधि डॉक्टर खैरा ने हासिल की। दिल्ली विश्विद्यालय में समाजशास्त्र के प्रोफ़ेसर के रूप उन्होंने अपनी सेवाएं दी। इसी बीच सन 1965 में माता जी के निधन की खबर से डॉक्टर खैरा टूट गए, एकदम अकेले हो गए। माँ के गुजर जाने के बाद अविवाहित खैरा ने फिर जिन्दगी अकेले ही काटने की ठान ली। डॉक्टर खैरा पहली बार सन 1983 -1984 में दिल्ली विश्विद्यालय से समाजशास्त्र विभाग के छात्रों को लेकर मैकल पर्वत श्रृंखला से घिरे अचानकमार-लमनी के जंगलों में आये। यहा की सुरम्य वादियों की गूँज डॉक्टर खैरा के मन-मस्तिष्क में घर कर गई। वर्ष 1993 में सेवानिवृति के बाद डॉक्टर खैरा लमनी के जंगल में आकर अति पिछड़े आदिवासियों के बीच रहने की कोशिश में जुटे। शुरुवात के तीन बरस डॉक्टर खैरा के लिए बहुत कठिन थे, आदिवासियों के बीच एक ऐसी मानवकाया रहना शुरू कर चुकी थी जिसका मकसद, काम और बोली अशिक्षित आदिवासियों के लिए भिन्न थी। लेकिन यहाँ के आदिवासियों का भोलापन,उनकी संस्कृति में डॉक्टर खैरा धीरे-धीरे ऐसे घुले की बस यही के होकर रह गये। अब डॉक्टर खैरा वानप्रस्थी के रूप में आदिवासियों के साथ जंगल में जनचेतना का शंखनाद कर रहे है। 
आदिवासियों के शैक्षणिक और सामाजिक उन्नति के साथ उनकी आर्थिक आत्मनिर्भरता के लिये डॉक्टर खैरा अपनी पूरी उर्जा झोंक चुके है। उन्होंने अपने प्रयास से वनग्राम छपरवा में साल 2008 में अभ्यारण्य शिक्षण समिति की नीव रखी जहां आस-पास के करीब 8 गाँवों के आदिवासी बच्चे शिक्षा की जलती अलख में उजाले की तलाश में जुटे हैं। डॉक्टर खैरा के मुताबिक आदिवासी आज भी विकास से कोसों दूर पाषाणयुग में जी रहे है। उन्हें सरकारें केवल वोट बैंक का हिस्सा मानती हैं, डॉक्टर खैरा के मुताबिक आदिवासियों को अब तब उनके मूल अधिकारों से वंचित रखा गया है। वैसे भी डॉक्टर खैरा की माने तो बीहड़ो में संवैधानिक मूल आधिकारो की बाते सिर्फ बेमानी लगती है। करीब 24 बरस से आदिवासियों के बीच रह रहे डॉक्टर खैरा मानते है की आदिवासी ही जंगलो की सुरक्षा कर सकते है लेकिन सरकारे और वन महकमा आदिवासियों को जंगल से विस्थापन के नाम पर बाहर खदेड़ रहा है। आदिवासियों की संस्कृति और सभ्यता को सरकारें शहरी परिवेश में ले जाकर ख़त्म करना चाहती हैं। खैर, डॉक्टर प्रभुदत्त खैरा की निःस्वार्थ कोशिशे अनवरत जारी है। हालांकि अचानकमार टाइगर रिजर्व बनने के बाद जंगल के उस इलाके की तस्वीर सरकारी महकमें ने काफी बदल दी है। डॉक्टर खैरा कहते हैं जंगल में वन महकमें के कानून ने आदिवासियों की जिंदगी के रंग को बेनूर कर दिया है। अचानकमार टाइगर रिजर्व का रास्ता 20 जनवरी 2017 से बंद किये जाने के बाद आदिवासी परिवारों पर रोजी रोटी का संकट भी बढ़ गया है। इधर वन विभाग एटीआर के 19 गाँव विस्थापित करने की तैयारी में है। ऐसे में आदिवासियों के बीच दो दशक से रहकर उनके अधिकारों के लिए संघर्षरत इस मसीहा को सिर्फ न्यायपालिका से उम्मीद है। उन्होंने एटीआर का रास्ता बंद किये जाने के मामले को लेकर छत्तीसगढ़ उच्चन्यायालय में एक याचिका लगाई है। एक उम्मीद है जो टूटी तो संस्कार-सभ्यता और शिक्षा के लिए जलती लौ बुझ जाएगी ! 
  वर्तमान में अचानकमार टाईगर रिजर्व का हिस्सा वनग्राम लमनी में 23 बरस से रहने वाला 90 साल का ये बुजुर्ग आज के हालात से निराश है, मगर उम्मीद जिन्दा है । 20 जनवरी 2017 से टाईगर रिजर्व के भीतर से गुजरने वाली सड़क (कोटा, अचानकमार होकर अमरकंटक) को आवाजाही के लिए बंद किये जाने के मामले में डॉक्टर खेरा कहते हैं रास्ता जोड़ने का काम करता है लेकिन शासन-प्रशासन रास्ता बंद कर लोगों के रिश्ते ख़त्म कर रहा है । अमरकंटक जैसी पवित्र धर्म स्थली पर लोग अचानकमार-छपरवा के रास्ते नहीं जा पा रहे हैं । ऐसा लगता है जंगल को जेल बना दिया गया है, हर कदम पर पूछताछ । आदिवासियों की जिंदगी को धीरे धीरे नरक बनाया जा रहा है । हमारा संविधान हमें जीने की आजादी देता है जिसे एटीआर बनने के बाद छीन लिया गया है । इस देश में गीर नेशनल पार्क अपने आप में एक बड़ा उदाहरण हैं जहां अंग्रेजों के जमाने से पार्क के रास्ते ट्रेन गुजरती है वहां वाइल्डलाइफ को ना कोई खतरा है ना अब तक कोई नुक्सान हुआ लेकिन अचानकमार में ना जाने क्या आफत आ गई जिसके चलते आम लोगों का रास्ता बंद कर आदिवासी परिवारों की आजीविका के साधन छीन लिए गए । डॉक्टर खेरा मानते हैं कि एटीआर में आम रास्ता खोला जाना चाहिए लेकिन शासन-प्रशासन से कोई उम्मीद नहीं है इसे न्यायपालिका ही ठीक कर सकती है । इस मामले को लेकर उन्होंने हाईकोर्ट में एक याचिका दायर की है । 90 बरस का ये बुजुर्ग साफ़ कहता है आदिवासियों के हक़ के लिए जरूरत पड़ी तो सुप्रीम कोर्ट तक जायेंगे ।

Saturday 3 September 2016

कहाँ थे एमएलए साहेब..।

         विकास की राह में मौत का पहरा   [तस्वीर / रविन्द्रनाथ टेगौर चौक, बिलासपुर]
कहाँ छुपे हो एमएलए साहेब  ! बिलासपुर विधानसभा की सियासत के देवाधिदेव तो तुम ही हो ! आम जनता सीवरेज, बदहाल सड़कें, बजबजाती गंदगी और गर्दो-गुबार से त्रस्त है और तुम हो कि 12 साल से विकास के पहाड़े ही लोगों को सुना रहे हो ! हाय रे सड़क ... बड़ा कष्ट दीन्हा। एमएलए साहेब की  घोषणावीरता के आगे सियासत के बड़े-बड़े विधाता नतमस्तक हैं, चार पंचवर्षीय से ऐसा छक्का मार रहें हैं कि गेंद विपक्षियों की औकात की बाउंड्री के बाहर जाकर गिर रही है। बिलासपुर विधानसभा के 13 लाख से ज्यादा अम्पायर [मतदाता] हैरान हैं कि खेल का मज़ा भी नहीं ले सकते और आउट भी नहीं दे सकते । शहर की तरक्की का ऐसा फार्मूला निकाला है कि लाखों जरूरतमंदों का दिवाला ही निकल जाये। अरे अमर बाबू ...  संस्कारधानी [बिलासपुर] के लोगों की आराधना में पता नहीं कहाँ कमीं रह गई ? कहीं तो रही होगी तभी तो चलने को सड़कें नहीं हैं, गंदगी से शहर पटा पड़ा है, सीवरेज के सिस्टम को जनता समझते-समझते गढ्ढों में समा रही है और आप [एमएलए साहेब] हैं की मैनेजमेंट के टॉप स्टूडेंट की भांति पिछली चार पंचवर्षीय परीक्षाओं में सफलता का परचम लहरा रहें हैं। आप तो जान ही गये हैं इस देश में चुनाव विकास के दम पर नहीं, बेहतर मैनेजमेंट की ताकत से जीते जाते हैं। 
 अपने शहर की सूरत पर जब भी नज़र उठाता हूँ चेहरा बदरंग ही दिखाई पड़ता है, सोचता हूँ कुछ बरस पहले तक इतनी बदहाल, बदरंग और बदसूरत तो नहीं थी 'बिलासा' ... क्या विकास के मेकअप ने सूरत बिगाड़ दी या फिर 'बिलासा' में उस तासीर के लोग कम हो गए जिन्हें शहर से लगाव था, समाज की फ़िक्र थी, बड़े-छोटों का अदब हुआ करता था ? कुछ तो हुआ है जिसकी वजह से संस्कारधानी की सीरत और सूरत बदल गई । इन सोलह सालों में शहर का भौगोलिक नक्शा तो बढ़ा, सड़कें हमारी छाती से भी ज्यादा चौड़ी हो गईं मगर सब आधा-अधूरा। राज्य विभाजन के बाद छत्तीसगढ़ के कुछ शहरों का जिस रफ़्तार से कायाकल्प हुआ लगा चंद सालों में हम भी महानगरीय जीवनशैली के स्वरुप को पा लेंगे लेकिन वो एक अधूरा ख्वाब ही रहा। मेरे शहर बिलासपुर को स्मार्ट सिटी बनाने की मांग भी उठी, उठाना भी चाहिए। मगर एक बार शहर के वर्तमान हालात को करीब से देखकर हम स्मार्ट सिटी बनाने का शोर मचाएं तो ज्यादा बेहतर होगा। करीब 9 साल हो गए भूमिगत नाली का काम होते हुए। आज भी हो रहा है और अभी तारीख तय नहीं कब तक होगा।  हाँ उस नाली के काम से कई फ़कीर लक्ष्मीपुत्र कहलाने लगे। बात मौके की है, मुझे अफ़सोस नहीं होना चाहिए। ये नहीं तो वो पाते। सवाल ये खड़ा होता है कि विकास के नाम पर की जा रही खुदाई में सिर्फ आम मतदाता ही क्यों गिरे ? आज शहर के अधिकाँश इलाको में सड़कें खोजे नहीं मिलती। अब तो गढ्ढों में चलते-चलते पाँव जब समतल जगह पर पड़ते हैं तो लगता है कहीं मोच न आ जाये। ना जाने कौन सी जगह पैर पड़ते ही शरीर भूमिगत हो जाये ? सच कहूँ, मेरे शहर में अब हर सड़क हादसों का नेउता लिए आगे को बढ़ती है। बचकर निकल गए तो मुकाम पर पहुँच जाएंगे नहीं तो अस्पताल पहुँचने की वारंटी-गारंटी का टैग ठीक उसी तरह सड़कों के बीच लगा हुआ है जैसा इस पोस्ट में लगी दो तस्वीरों में आप देख रहें हैं। पोस्ट में लगी तस्वीर रविन्द्रनाथ टेगौर चौक की है। तस्वीर में भूमिगत नाली के काम का सबूत आपको दिखाई पडेगा जिस पर नगर निगम बिलासपुर की मेहरबानी से ट्री गार्ड लगा दिया गया है। ऐसे कई इलाके हैं जहां मौत मुंह फाड़े सालों से बैठी है। उसमें कई समाये और जन्नत -जहन्नुम जहां जाना था चले गए, कइयों की हड्डियों का इलाज अब भी चल रहा है। 
आज मंत्री अमर बाबू शहर भ्रमण पर निकले, साथ में निगम के अफ़सर और समर्थकों का मज़मा । कई इलाको में गए, शहर के हालात देख अफसरों को खरी खोटी भी सुनाई । अफसरों से बोले लापरवाह ठेकेदारों को ब्लैक लिस्ट करो । वाह बाबू साहब... आप जमीन पर चलकर शहर की बदहाली देखने आज निकले । ये जनता तो सालों से उस बदहाली में रहकर नारकीय जीवन जी रही है । कहीं पीने के पानी की किल्लत, कहीं गंदगी से सेहत का मिज़ाज़ गड़बड़ तो कहीं पे सड़क की ना ख़त्म होने वाली तलाश । मुझे आज भी अच्छे से याद है इंदु चौक के पास की बदरंग और बेतरतीब सूरत । शिव टाकीज चौक पर हादसे को बुलावा देती तस्वीर पोस्ट पर लगी हुई है । यातायात व्यवस्था सुधारे नहीं सुधरी, बस हेलमेट की आड़ में कभी जेब तो कभी सरकारी खजाने का वजन बढ़ता रहा । जनता को अपनी बर्बादी दिखती तो है मगर अव्यवस्थित विकास पर भारी पड़ता आपका व्यवस्थित मैनेजमेंट कुछ कहने नहीं देता । हकीकत से जनतंत्र वाकिफ़ है, आप तो सरकार है भला आपसे क्या छुपा है ? आज आपने देख ही लिया स्मार्ट बनने की राह में अटकती साँसो को लिए हम सिर्फ शोर मचाये जा रहें है । सफाई अभियान की हकीकत आपके और प्रशासनिक अफसरों के बंगलों से कुछ ही दूर चलने पर दिखाई पड़ जाती है । बहुत से मुद्दे हैं, समस्याओं का अम्बार भी है मगर दोष किसको दें ? हमने ही तो आपको देवाधिदेव मानकर कुर्सी दी, सत्ता सौपी और आप ? विपक्ष कुछ बोलने की स्थिति में नही है । विकास के ठेकेदारों की सूचि में सत्ता और विपक्ष का गठबंधन बेजोड़ है ।
अंत में सिर्फ इतना ही कहूँगा कि आप भी मेरे शहर में जब कभी तफरी करने आएं तो जरा संभलकर चलें क्योंकि यहां के पथ न तो बिनानी सीमेंट से बने है ना ही सीवरेज के गढ्ढों पर लगे ढक्कन में फेविकोल का मजबूत जोड़ लगा है । जरा संभलकर चलिए, क्योंकि इन 16 सालों में विकास के पन्ने पलटते वक्त आपको कहीं गौरव पथ मिलेगा, कहीं तुर्काडीह पुल की मजबूत पाइल से मुखातिब होने और करिश्माई इंजीनियरों की करतूतें दिखाई पड़ेगी । हर राह से गुजरते वक्त स्वच्छ भारत मिशन के अतुलनीय दृश्य दिखाई पड़ेंगे ।  और भी बहुत कुछ लेकिन जो मुझसे लिखते वक्त छूट गया उसे आप खुद देखिये । बहुत कुछ तो मंत्री अमर बाबू भी आज देख आएं हैं । देखते है कल क्या बदलता है ? 

Friday 26 August 2016

सेल्फी... एक सनक !

यह दौर दरअसल मोबाइल क्रांति का है। इसने सूचनाओं और संवेदनाओं दोनों को कानों-कान कर दिया है। अब इसके चलते हमारे कान, मुंह, उंगलियां और दिल सब निशाने पर हैं। मुश्किलें इतनी बतायी जा रही हैं कि मोबाइल डराने भी लगे हैं। इसी क्रान्ति ने मौजूदा दौर में 'सेल्फी' नाम के लाईलाज बुखार को भी संक्रमण की तरह आम-ओ-ख़ास तक फैलाया है। सेल्फी फीवर से संक्रमित मरीज अब लापरवाहियों के चलते मौत की आगोश में भी समाते जा रहें हैं। अक्सर सेल्फी ज्वर से तपते व्यक्ति की एक तस्वीर यादगार बनकर परिवार के लिए ज़िन्दगी भर का दर्द दे जाती हैं।
सेल्फ़ी हमारे सेल्फ मूड की खुली नुमाईश हैं जिसके जरिये हम अक्सर अपनी संवेदनहीनता का परिचय सरे राह-बीच बाजार दे जाते हैं । ख़ुशी का मौक़ा हो या मातम का रुदन, मज़हब की चौखट हो या बिस्तर की सलवटों में सिमटता जिस्म,  सेल्फ़ी हर मौके की चश्मदीद गवाह है । मोबाईल फ़ोन के फ्रंट कैमरे नें कई बार रिश्तों की मिठास में कड़वाहट का ज़हर भी घोला है लेकिन हम किसी भी घटनाक्रम से सबक नही लेते । मुझे लगता है सेल्फ़ी सिर्फ एक सनक है, हमारे दिमाग की एक ऐसी उपज जिसमें संवेदनाओं का कोई मोल नही । कई बार तो ये भी लगता है कि बिना सेल्फ़ी के ख़ुशी और मातम के मौके अधूरे हैं । रस्म, रिवाज सा हो गया है सेल्फ़ी का ज्वर । अफ़सोस तब होता है जब सेल्फ़ी का संक्रमित मरीज श्यमशान घाट, सड़क हादसे, भीख लेते-देते, किसी की मदद करता एक सेल्फ़ी उतारता है और बेहद गंभीर भाव से सोशल मीडिया पे उसे पोस्ट कर घटनाक्रम से अवगत कराते हुए मौके पर अपनी मौजूदगी का सबूत पेश करता है । उसे इस बात से बाद में सरोकार होता है कि मरने वाले से उसका क्या रिश्ता है, जिसकी मदद करते हुए हाथ आगे बढ़ाये वो कितना जरूरतमंद है ? सिर्फ एक सेल्फ़ी फिर वाहवाही... हमने फ़लाना मोहल्ले में वृक्षारोपण किया, फ़ला तालाब की सफाई की । वृद्ध आश्रम में दर्जन भर केले बांटे, गरीबों को भण्डारा कराया ।  ऐसे कई मौके हैं जो सेल्फ़ी के जरिये आपके सेल्फिश होने की कहानी कहते हैं पर भ्रम में जीते सेल्फीरियों को लगता है सब ठीक है। दरअसल हकीकत वो नही होती जैसा हम सोचते समझते हैं ।  हम बाज़ार में कहीं भी कभी भी मोबाईल कैमरे के जरिये फोटोग्राफी के शौक को पूरा कर रहें हैं। दुर्भाग्य देखिये इस देश में हर हाथ को काम नहीं पर हाथों हाथ मोबाइल फोन है। हर वर्ग-उम्र के पास संचार क्रान्ति की डिबिया मौजूद हैं जिसके आगे लगी एक आँख हमारी सूरत और सीरत को हूबहू नहीं देखती  पर हमको लगता है हर शॉट परफेक्ट है। वैसे भी सेल्फ सर्विस की सूरत अलग से दिखाई पड़ती हैं । किसी की आधी तो किसी की पूरी जीभ बाहर । होंठ चोंच की तरह आगे को खींचे हुए, अधखुली आँखे और बिना कंघी के संवरें बाल । वाह क्या खूबसूरत तस्वीर... अब तो सेल्फ़ी पीड़ितों के लिए बाज़ार में दो हाथ लंबी छड़ी भी उपलब्ध है जिस पर मोबाइल लटकाकर लटके-झटके के साथ खींचे हुए चेहरे की एक क्लिक...।
सेल्फ़ी के दौर में सेल्फिश हुये इंसान ने रिश्तों को महज़ एक तस्वीर में समेटने की कोशिश की है । हम हर मौके पर एक ग्रुप सेल्फ़ी के बाद सेल्फ डिपेंड नज़र आते है । कई मायनों में सेल्फ़ी की भूमिका आजीवन यादगार बनकर रह जाती है तो कई बार एक सेल्फ़ी यादगार तस्वीर के रूप में हम पर हार चढ़वा देती है । अक्सर सेल्फ़ी के पागलपन में हमारे हिस्से तस्वीर की शक्ल में सिर्फ मौत आती है । कई घटनाएँ है जो जहन को झकझोर देती हैं पर सबक कितनो को मिलता है ? खोजिएगा तो आंकड़े शून्य  ।
   मोबाइल फोनों ने किस तरह जिंदगी में जगह बनाई है, वह देखना एक अद्भुत अनुभव है। कैसे कोई चीज जिंदगी की जरूरत बन जाती है- वह मोबाइल के बढ़ते प्रयोगों को देखकर लगता है। वह हमारे होने-जीने में सहायक बन गया है। पुराने लोग बता सकते हैं कि मोबाइल के बिना जिंदगी कैसी रही होगी। आज यही मोबाइल खतरेजान हो गया है। पर क्या मोबाइल के बिना जिंदगी संभव है ? जाहिर है जो इसके इस्तेमाल के आदी हो गए हैं, उनके लिए यह एक बड़ा फैसला होगा। मोबाइल ने एक पूरी पीढ़ी की आदतों उसके जिंदगी के तरीके को प्रभावित किया है।  ये फोन आज जरूरत हैं और फैशन भी। नयी पीढ़ी तो अपना सारा संवाद इसी पर कर रही है, उसके होने- जीने और अपनी कहने-सुनने का यही माध्यम है। इसके अलावा नए मोबाइल फोन अनेक सुविधाओं से लैस हैं। वे एक अलग तरह से काम कर रहे हैं और नई पीढी को आकर्षित करने का कोई अवसर नहीं छोड़ते। ऐसे में सूचना और संवाद की यह नयी दुनिया मोबाइल फोन ही रच रहे हैं। आज वे संवाद के सबसे सुलभ,सस्ते और उपयोगी साधन साबित हो चुके हैं। मोबाइल फोन जहां खुद में रेडियो, टीवी और सोशल साइट्स के साथ हैं वहीं वे तमाम गेम्स भी साथ रखते हैं। वे दरअसल आपके एकांत के साथी बन चुके हैं। वे एक ऐसा हमसफर बन रहे हैं जो आपके एकांत को भर रहे हैं चुपचाप। कोशिश कीजिये इस जरूरत का जरूरत भर इस्तेमाल करने की साथ ही उसके सामने की आँख [फ्रंट कैमरा] से आँख मिलाते वक्त सावधानी बरती जाए।  आपकी सावधानी ना जाने कितनी जिंदगी की खुशियों का हिस्सा है .. !   

Thursday 11 August 2016

कुछ सवाल 'स्मिता' से

 "सलाम करता हूँ हुजूर के जज्बे, ईमानदारी और सर झुकाता हूँ उनकी कर्तव्यनिष्ठा पर जिन्होंने बारिश से भीगते जूते तो बचा लिए पर खुद तरबतर होकर यातायात व्यवस्था सँभालते रहे। सोशल मीडिया पर पिछले दिनों ये पोस्ट आई तो लगा मुझे भी कुछ कह लेना चाहिए, पोस्ट में बात ही कुछ ऐसी लिखी है । पोस्ट सोशल मीडिया पर वायरल हुई, जिसमें एक कर्तव्यनिष्ठ सिपाही की बारिश में भीगती हुई तस्वीर है । पोस्ट में लगी तस्वीर निःसंदेह उस सिपाही की कार्यदक्षता को प्रमाणित करती है जिसे न बारिश की नमी से खीज उठती है, ना ही उसे लू के थपेड़ों से डर लगता होगा।" ये पोस्ट सोशल मीडिया के पते पर मुझे मिली, पतेदार का नाम स्मिता तांडी  है। नाम काफी मक़बूल है, फिर भी उन लोगों से इस नाम का तार्रुख़ जरूरी है जो स्मिता को नहीं जानते। पेशे से छत्तीसगढ़ पुलिस में सेवारत हैं, मोहतरमा का दूसरा परिचय भी है, जो शायद पुलिस सेवा से ज्यादा बड़ा है। पारिवारिक जिम्मेवारियाँ , पुलिस की नौकरी के साथ-साथ सामाजिक कर्तव्यों का पालन करना मोहतरमा की नियमित दिनचर्या में शामिल हैं। स्मिता का नज़रिया मुझे पुलिसिया कम, मानवीय ज्यादा नज़र आता है। चूँकि मेरी फेसबुक पर मित्र हैं लिहाजा उनकी पोस्ट के जरिये मानव सेवा की तस्वीरें रोज देखता रहता हूँ। एक सामाजिक संस्था की सदस्य हैं जिसका काम जरूरतमंदों को हर संभव मदद करना है। उनकी संस्था [जीवनदीप] ने कई ज़िन्दगी आबाद की, कइयों को बिछड़े माँ-पिता से मिलवाया तो कई घरों में उम्मीद की नई रोशनी पहुँचाई। आप साधुवाद की सिर्फ हकदार नहीं, बल्कि आपकी पूरी टीम बिगड़ते परिवेश में मानवीय मूल्यों को सहेजने की कोशिशों में अब तक सफल हैं।
                           स्मिता जी, मैंने पुलिस और पुलिसिया गतिविधियों को करीब से देखा है। सच कह रहा हूँ कभी अच्छा लिखने का मन ही नहीं हुआ, मैं ये नहीं कहता इस देश का पुलिस परिवार अच्छा नहीं है लेकिन उनकी संख्या उस भीड़ में नहीं के बराबर है जहां खाकी से लिपटा अधिकाँश चेहरा भ्रष्ट, बेईमान है। वो अमानवीय कृत्यों की घिनौनी मंडी में अपनी पारी का इंतज़ार करता खड़ा नज़र आता है। आपने जिस पोस्ट के जरिये पुलिसिया जनभक्ति की एक तस्वीर प्रस्तुत की वो सही मायने में एक ईमानदार इंसान की हो, जिसे अपने कर्तव्यपथ में बारिश की नमी से न खीज उठती है ना ही लू के थपेड़ों से सेहत का मिज़ाज़  बदलता है, पर ऐसे ईमान की रोटी खाने वालों की जरूरत कितनों को है ? अगर हुजूर ज्यादा कर्तव्यनिष्ठ और ईमानदारी की रोटी खाते है तो मातहतों का हाजमा खराब रहता होगा या फिर हजूर को उनके हुक्मरान चैन की नींद नहीं लेने देंगे। चौराहे पर खड़ा सिपाही नियम-कायदे को जूते की नोक पर रखने वालों को नहीं देख पाता । उसकी नज़र सिर्फ कमजोर और बेबस को तलाशती रहती है, ताकि ड्यूटी का वक्त ख़त्म होने तक वर्दी की जेब भारी हो सके। यही हाल थानों, दफ्तरों में हैं। विडम्बना तो यही है हम बाज़ार में भीड़ से मानवता और नैतिक मूल्यों की उम्मीद रखतें है जबकि उसका अभाव हमारे परिवार [संस्था-विभाग] में अधिक होता है। देश के भिन्न-भिन्न सूबों से पुलिसिया कार्यशैली की ख़बरें सामने आती रहती हैं। उन ख़बरों में प्राथमिकता जरूर पुलिस की गैरवाजिब करतूतें, क्रूरता की होती हैं। क्या कीजियेगा बाज़ार की मांग के मुताबिक़ जबसे अख़बार और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की मंडी में ख़बरों में तड़का लगने लगा तब से अधिकाँश काले कारोबारियों को लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ का मालिकाना हक़ मिल गया। हम तो बस उस रसोइये की भूमिका में हैं जिसे हर ग्राहक की ज़बान के मुताबिक़ स्वाद परोसना है। हाँ शुक्र है सोशल मीडिया का जहाँ काफी कुछ लिखने, बोलने की आज़ादी है। 
 लिखते-लिखते हुजूर को भूल गया, चलिए मुद्दे पर आता हूँ। स्मिता जी आपकी पोस्ट जिसे आपने किसी राहुल शर्मा जी के फेसबुक पेज से लिया और काफी कुछ लिखकर उसे जनहित से जुड़ा मसला बताते हुए शेयर करने की अपील की। पोस्ट के जरिये आपका मकसद नकारा-निकम्मे लोगों को प्रेरणा देना और उनमें देशभक्ति-कर्तव्यनिष्ठा की भावना जागृत करना है। सच बताइयेगा, क्या जो सोने का अभिनय कर रहें हैं उन्हें जगाया जा सकता है ? क्या उन लोगों में देशभक्ति-कर्तव्यनिष्ठा की उम्मीद दिखाई पड़ती है जो सिर्फ पैसों के लिए श्रम कर रहें हैं ? क्या वो लोग मानवीय नज़रिये से किसी बात को देखते हैं जिनका ईमान बाज़ार में बैठी किसी तवायफ की दहलीज़ पर नंगा पड़ा है ? क्या उनसे कोई उम्मीद की जा सकती है जो अपने-अपने आकाओं के जूतों की गर्द झाड़कर नौकरी की सलामती का ढोल पीट रहें हैं ? हम किसी ना किसी रूप में बेईमान हैं, जब भी देखता हूँ किसी बेईमान को तो सोचने लगता हूँ आखिर इसका अधिकतम मूल्य क्या होगा ? हालांकि इस तरह की जमात वालों का हुलिया ही उनकी कीमत का अघोषित टैग होता है। आपकी उस पोस्ट में पत्रकारों की मानसिकता और उनकी असंवेदनशीलता का जिक्र भी है। जरूरी भी है, पत्रकार ? इस दौर में पत्रकारिता की तलाश ठीक उसी तरह है जैसे किसी बच्चे के हाथ से मोबाइल छीनकर "चाचा चौधरी" वाला कॉमिक्स पकड़ा देना। सब प्रायोजित है, ठीक करने की मानसिकता से रंगा हुआ है। अब सामजिक सरोकार को कहीं कोई जगह नहीं मिलती, ना ख़बरों में न ही जनसेवा-देशभक्ति की शपथ लेने वालों में। ऐसे में आपकी अपील कितनी सार्थक होगी ? मैं नही बता सकता, पर यक़ीन मानिये यहाँ कोई नहीं सुनता, बस हम शोर मचाते रह जाते हैं। वैसे भी कुनबा जिनका बड़ा होता है वे अपने-अपने स्तर पर मजबूत होते हैं। ऐसे में हरियाणा के सोनीपत का ये जवान जिसका नाम राकेश कुमार है वो बारिश में भीगकर कर्तव्य की मिसाल पेश करे या फिर परिवार की खुशियों को ताक पर रख दें किसी को फर्क नहीं पड़ता। 
  एक बार फिर पुलिसकर्मी राकेश और मोहतरमा स्मिता जी को नमन जिन्होंने मानवीय संवेदनाओं के साथ-साथ कर्तव्यों की राह पर ईमानदारी से चलने की कम से कम कोशिश तो की है। 

Friday 29 July 2016

ॐ शांति... ॐ शांति.. ॐ शांति

" सियासत की बिसात पर एक लाश रखी गई और उसके पैरोकारी की आड़ में सत्ता पर निशाना साधा गया । लाश को पहचानने वाले आज सैकड़ों की तादात में हैं, मगर कल तक वो अकेला था । जिंदगी की तमाम उलझनों से तंग होकर जब उसने अग्नि स्नान किया तो बचाने वाला भी कोई नहीं था । आज उसके परिवार की पैरवी करने वालों की भीड़ सरकारी नौकरी, रुपया और तमाम सरकारी सुविधाएँ मांग रही है । तमाम उम्र गुज़र जाती मगर उसका नाम पहचान को मोहताज़ रह जाता, भला हो मौत का जिसने नाम को मकबूल किया ।"
सच तो ये है कि जितने भी लोग उसकी मौत पर आज स्यापा कर सरकार को कोस रहें हैं वो खुद उसके लाश होने के पहले की पहचान से वाकिफ़ नहीं है । सोचता हूँ उस दिव्यांग के बारे में जिसे मैं खुद नहीं जानता, सिर्फ ख़बर और ख़बरों के लिए होते तमाशे ने मुझे उससे परिचय करवाया है । मैंने उसे कभी देखा भी नहीं फिर भी सोचता हूँ वो कितना कायर रहा होगा जिसने सत्ता की चौखट पर जिंदगी ख़ाक कर दी । अरे । मौत से रिश्तेदारी निभानी ही थी तो सरकार की चौखट ही क्यों भाई ? कहीं और क्यूँ नही । सरकारें मुफ़लिसी दूर नहीं करती उसे शायद ये ख़बर नहीं थी । तुम तो हमेशा के लिए चैन की नींद पा गए मगर कुछ सियासी सुरमा अचानक जाग गए हैं । सिर्फ तुम्हारी लाश का नाम पता है, उसकी आड़ में ताल ठोंककर सियासी चरित्रवलि लिख रहें हैं । कोई सड़क पर लोट रहा है तो कोई बोल बच्चन की आड़ में अपने अपने आकाओं की पैरवी करता दिखाई पड़ रहा है । सियासत की चरित्रहीनता को सबने नंगा देखा है, बात कहने-सुनने की नहीं बस मौक़ा मिलने की है । शायद उनको इससे अच्छा मौका ना मिले । 
राजनीति के खेल में कौन किसको कब किस दांव में पछाड़ दे मालूम नहीं होता । कुछ इसी तरह की धोबी पछाड़ में सूबे के सियासी सुरमा सुर ताल के साथ दाँव देने की जुगत में जनसरोकार के मसलों से दूर होते जा रहें हैं । पिछले दिनों राजधानी रायपुर के सीमावर्ती क्षेत्र बिरगांव में रहने वाले दिव्यांग योगेश साहू ने मुख्यमंत्री निवास के सामने आत्मदाह की कोशिश की । करीब 85 फीसदी जल चुके योगेश को आनन्-फानन में इलाज के लिये अस्पताल भेजा गया जहां तमाम कोशिशों के बावजूद जिंदगी रूठ गई । दरअसल योगेश मुख्यमंत्री निवास में चल रहे जनदर्शन में पहुंचकर अपनी समस्या और मांगों का पुलिंदा डाक्टर रमन सिंह को सौपना चाहता था, वक्त की हेराफेरी में उस दिन उसकी मुलाक़ात मुख्यमंत्री से नहीं हो पाई । लिहाज उसने पेट्रोल छिड़ककर खुद को आग के हवाले कर दिया । योगेश इससे पहले भी चार बार समस्याओं की गठरी बांधे मुख्यमंत्री निवास पहुँच चुका था । समस्या का बोझ शायद पहले की 4 मुलाकातों में कम नहीं हुआ होगा तभी इस बार इतना बड़ा फैसला लिया गया, मगर ये कोई रास्ता नहीं है । समस्या किसे नहीं है ? मैं ये मानता हूँ योगेश ने सिर्फ ना अपनी कायरता का परिचय दिया बल्कि उस जिम्मेवारी से भी मुँह मोड गया जो परिवार के प्रति थी । आर्थिक रूप से कमजोर दिव्यांग योगेश की मुफ़लिसी को मैंने करीब से नहीं देखा है मगर शोर है की परिवार काफी तंगहाल है । तंगहाली का मतलब ये तो नहीं कि हम ख़ुदकुशी कर लें और उन लोगों के जिंदा हो जाने का जरिया बन जाएँ जो कल तक हमारे जैसे लाखों दिव्यांगों को अपनी चौखट पर पैर तक नहीं रखने देते । सरकार के भरोसे बच्चे पैदा करना, उन्हें पढ़ाना, उनकी शादी से लेकर फिर बच्चे पैदा करने की उम्मीद हमें शायद ख़ुदकुशी को मजबूर कर रही है । 
आज हर गरीब को रोटी कपड़ा और मकान की जरूरत है । परिवार के भरण-पोषण से लेकर ईलाज तक का ठेका सरकारों ले । हम सिर्फ खाएंगे, बच्चे पैदा करके देश की जीडीपी ग्रोथ बढ़ाने में बराबर की हिस्सेदारी निभाएंगे । सरकारें मुफ्तखोरी की आदत डाल चुकीं है, वजह सत्ता की कुर्सी । जिनके पास कुर्सी नहीं वो ऐसे दिव्यांग योगेश साहू के आत्मघाती कदम पर रोटी सेकने को बेताब हैं । छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री और छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस के प्रमुख अजीत जोगी ने योगेश के आत्मघाती कदम के लिए सत्ता पक्ष को जिम्मेदार ठहराया है । उन्होंने कल ही छत्तीसगढ़ बंद का आह्वान किया जिसे आंशिक सफलता भी नहीं मिल पाई । अजीत जोगी ने सरकार से दिव्यांग के परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी, 50 लाख की सरकारी मदद के अलावा बहुत कुछ माँगा है । अच्छा है, इन्ही लोगों की नजर में जिसकी जिन्दा होते ना कोई पहचान थी, ना कोई बखत वो मौत के बाद सियासी अखाड़े में काफी कीमती और सामाजिक दिखाई पड़ने लगा । 
सवाल सिर्फ सियासत का है । 
1. आखिर कितने लोग उस दिव्यांग योगेश को सीधे तौर पर जानते हैं ? 
2. जिस भीड़ ने योगेश की मौत का मातम मनाया उसमें से कितने लोगों ने उसे जिंदगी की परेशानियों से लड़ना सिखाया ? 
3. कितने रुदाली हैं जिन्होंने योगेश की बेबसी, लाचारी पर मदद को हाथ आगे बढ़ाये ?
4. कौन-कौन लोग हैं जिन्होंने उसकी मौत के बाद उसके पतिवार की परेशानियों को कम करने का बीड़ा अपने कंधे पर लिया ? 
कई सवाल हैं साहब लिखने को पर लिखकर मुझे अच्छा नहीं लगेगा, आप पढ़ेंगे तो नाहक लाल-पीले होंगे । मुझे तो आपके तेवर की वो शक्लों सूरत भी आज तक याद है जोगी जी जब आप इस प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री बनने के बाद केबिनेट की पहली बैठक लेने अम्बिकापुर पहुंचे थे । आपकी और मेरी तल्ख़ बातों की कुछ यादें हैं जहन में लेकिन यहां जिक्र करके दिव्यांग की मौत पर होते स्यापा में खलल नहीं डालूँगा । मरने वाले की आत्मा को ईश्वर शांति दे मगर उसकी मौत पर सियासत की जुबान से निकलते आरोप-प्रत्यारोप शायद ही उसे चैन की नींद सोने दे । कल ही का पूरा ड्रामा देखे तो छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस के बंद में सिर्फ शक्ति प्रदशर्न की कोशिश रही, मौत के बहाने सरकार को ताकत दिखाने की कोशिश की गई । बंद असफल रहा, कोशिशें नाकाम दिखी । सरकार के प्रधान भी बोलने से बाज नहीं आये उन्होंने कह दिया जोगी का भ्रम इस बार टूट ही गया । उनके साथ कोई भी नहीं, सिर्फ हंगामा मचाने से सत्ता की पेशानी पर बल नहीं पड़ने वाला । वाह .... जिसके लिए तमाशे का आयोजन था उसके विषय को दरकिनार कर सियासतदार अपनी अपनी ताकत का आंकलन करते दिखे । 
मुझे लगता है, हम सब कुछ सिर्फ स्वार्थ के लिए करते हैं । सामाजिक सरोकार भी सिर्फ स्वार्थ के लिए । जनहित के मुद्दे भी अपनी रोटी सेकने की जुगत में । सोचता हूँ हम कितने चेहरे लिए बाज़ार में आम जनमानस की भीड़ में शामिल रहते हैं ? कभी मोमबत्तियाँ जलाते हैं तो कभी चेहरे की ताजगी पे चिंता के भाव दिखाकर लोगों की भावनाओं से खेलते हैं । वो सोचते हैं भीड़ उनके साथ है, मगर भीड़ की शक्ल में सबकी अपनी अपनी भावनायें निहित होती है जो ना दिन के उजाले में नज़र आती हैं ना जलाई गई मोमबत्तियों की रोशनाई में ।
अंत में सिर्फ इतना ही .... भगवन उस दिव्यांग की आत्मा को शांति देना जो इन दिनों राजनीति के चूल्हे पर कुछ लोगों की उम्मीद का पुलाव बना हुआ है । 
                                       ॐ शांति.. ॐ शांति... ॐ शांति.. ॐ शांति !

Wednesday 27 July 2016

इंतज़ार.. तब तक सिर्फ मलाल !

                                           
                                                    "उसे मालूम है कि शब्दों के पीछे
                                                      कितने चेहरे नंगे हो चुके हैं
                                                     और हत्या अब लोगों की रुचि नहीं –
                                                     आदत बन चुकी है
                                                     वह किसी गँवार आदमी की ऊब से
                                                     पैदा हुई थी और
                                                     एक पढ़े-लिखे आदमी के साथ
                                                     शहर में चली गयी"
                    गौरांग मर्डर मिस्ट्री पुलिस ने सुलझा ली है। पुलिस की कहानी पर गौरांग के परिजन और शहर के कुछ जागते लोगों को यक़ीन नहीं है । गौरांग के परिजन और शहर के जिन जागरूक लोगों का जिक्र कर रहा हूँ वो इस मामले में न्याय चाहते हैं हालांकि पुलिस की कहानी के मुताबिक़ गौरांग की मौत गैर इरादतन ह्त्या  है । पुलिस ने गैर इरादतन के कारणों का खुलासा नहीं किया है । चार रईसजादे मामले में आरोपी बनाकर ख़ास इंतज़ामात के बीच कल जेल भेज दिए गए । इस सनसनीखेज मामले का पटाक्षेप करते वक्त जिले के पुलिस कप्तान ने बिलासगुड़ी में प्रेस कांफ्रेंस बुलाई जहां पत्रकारों के अलावा सैकड़ों की संख्या में जिज्ञासु तमाशबीन मौजूद रहे । पुलिस की कहानी ज़िंदा होने का सबूत दे रहे लोगों के गले नहीं उतर रही और मैं पुलिस की लीपापोती को सालों से देखता चला आ रहा हूँ । सच अब भी गौरांग की मौत के साथ दफ़न है । कोशिश करना है इस मौत का सच और वजह दोनों सामने आये साथ ही क़ानून के कुछ पैरोकारों की घिनौनी सूरत । ताकि लोग भी देखें रसूखीयत की चौखट पर कानून के विवेचक कितने बौने और बेईमान हैं ।
                                                   मैं इस बात से खुश हूँ कि जिस शहर का वाशिंदा हूँ वहां अब भी कुछ लोग ज़िंदा हैं । कभी-कभी भ्रम होता था मुर्दों के शहर में मैं रोज सुबह घर से निकलकर कमाने-खाने बाहर शहर को चला जाता हूँ, रात होते ही फिर अपने घरौंदें में । क्या हूँ, किसके साथ हूँ और किस काम को करता हूँ ? इससे ज्यादा की ख़बर नहीं थी मुझे । स्मार्ट होते शहर बिलासपुर में पिछले गुरूवार (20/21 जुलाई की दरम्यानी रात) को अय्याशी के एक अड्डे (रामा मेग्नैटो मॉल के टीडीएस बार) में गौरांग बोबड़े नाम के एक युवक की खून से सनी लाश संदिग्ध परिस्थितियों में पाई गई । मामला मॉल की दहलीज से निकलकर पुलिस की चौखट पर पहुँचा । मौक़ा मुआयना और मरने वाले की ख़बर घर तक पहुंचाकर पुलिस ने विवेचना की शुरुआत की । इस बीच ख़बर संस्कारधानी से निकलकर राजधानी रायपुर होते हुए देश की राजधानी दिल्ली तक पहुँच गई । मीडिया के शोर शराबे और पीड़ित परिवार के रुदन पर कुछ लोग सामने आये । चूँकि मामला बड़े घर के बिगड़े नवाबों से जुड़ा था लिहाजा हल्ला मचना स्वाभाविक हो गया । दरअसल मृतक गौरांग बोबड़े का एक मित्र केलिफोर्निया में रहता है जो पिछले दिनों बिलासपुर आया था । मित्र के विदेश से आने की ख़ुशी में कुछ देशी मित्रों ने पार्टी का इंतज़ाम किया। पार्टी शहर के मशहूर टीडीएस बार में रखी गई जहां शराब,शबाब और कबाब का भरपूर इंतज़ाम था । थिरकती बार बालाओं की अदाओं के बीच जाम पे जाम छलकते गए । नशे की खुमारी सर चढ़ती गई और वक्त पहर पे पहर बदलता गया । रात को शुरू हुई महफ़िल का दौर तड़के ढाई बजे तक चलता रहा, इस बीच आखिर क्या हुआ ? क्यों हुआ ? किसने किया ? कई सवाल... सुबह सिर्फ ख़बर मातम की बाहर आई । विदेशी मेहमान और गौरांग के दोस्त की खातिरदारी में टीडीएस बार सुबह ढाई बजे तक खुला रहा, बाउंसर और सुरक्षाकर्मी ड्यूटी पर मौजूद रहे । हालांकि ये पहला मौक़ा नहीं था जब भोर तलक टीडीएस बार की रौशनाई में जामें दौर छलकता रहा । ये वो अड्डा है जहां रात के अँधेरे में शहर के कुछ सफेदपोश और उनकी संताने पैसों की गर्मी में तपते तपते इस कदर नंगी होती हैं कि देखने वाले को यक़ीन भी नहीं होता ये ज़नाब फ़लाना चावलानी हैं या फिर ढिमका लाल अग्रवाल । शायद उस रात भी कुछ ऐसा ही हुआ । लेकिन ऐसा क्या हुआ की विदेश से आये दोस्त के साथ पहुंचे देशी दोस्त आज गैर इरादतन ह्त्या के आरोपी बना दिए गए ? क्यूँ गौरांग ही मारा गया ? क्या दोस्तों के बीच किसी तरह का विवाद हुआ, कोई पुरानी रंजिश थी ? आख़िर क्यों मारा गया या हादसे में मर गया गौरांग ? कई सुलगते सवाल है जो पहले भी उठाये जा चुके हैं । मौकाए-वारदात का मुआयना करने के बाद पुलिस ने भी माना था मामला हत्या का हो सकता है फिर विवेचना में गैर इरादतन हत्या का खुलासा क्यों ? आम चर्चा में इस मौत को हत्या ही माना गया, जनशोर की माने तो हत्या बार के बाउंसरों ने की जिसमें कुछ दोस्तों का हाथ है । मगर पुलिस कप्तान के खुलासे ने सारी संभावनाओं और आशंकाओं को ही ख़त्म कर दिया । पुलिस की लंबी विवेचना और संदेहियों से पूछताछ के बीच उन कयासों पर भी निराशा ही हाथ लगी जिसमें डाक्टरों ने जिक्र किया था लाश पर चोट के निशान और फटा हुआ लिवर सामान्य रूप से सीढ़ी से गिराने-गिरने से संभव नहीं ।
 अब गौरांग के परिवार को न्याय चाहिए । गौरांग की बहन ने पुलिस की विवेचना और उसके तरीके पर पहले ही शक जाहिर कर दिया था वो अपने भाई को न्याय दिलाने के लिए आखरी सांस तक लड़ने का ऐलान कर चुकी है । न्याय के मंदिर पर पूरा भरोसा है, अब उसे साथ के लिए सिर्फ उन लोगों की जरूरत है जो ज़िंदा होने की बात कहते हैं । ये लड़ाई एक बेटे,भाई को न्याय दिलाने के लिए शुरू की गई है जिसमें काफी लोग एकजुट हैं । इधर इस मामले में पुलिस की कार्रवाही पर हर जुबां पर सैकड़ों सवाल हैं मगर जवाब देने कोई तैयार नहीं । गौरांग की मौत और उससे जुड़े सभी सवालों को लेकर काफी दबाव पुलिस पर भी रहा । हत्या या हादसा ? पुलिस किसे पकड़ती, किसे छोड़ती। सारे नवाब रुपयों की गर्मी के बीच पलकर बड़े हुए । मालूम था करतूत के अंजाम का खर्च । उन्हें शायद पता थी सबकी कीमत तभी तो पुलिस की एफआईआर के मुताबिक़ गैर इरादतन हत्या के आरोपी जेल भेजे जाने तक पुलिस की ख़ास व्यवस्था के बीच रहे । घर का लज़ीज़ खाना, नाश्ता-चाय सब कुछ स्वादानुसार दिया जाता रहा । अब आरोपियों के परिजन जेल की चाहर दिवारी के इर्द-गिर्द मज़मा लगाये खड़े हैं । दरअसल रसूखदारों को इस सिस्टम की सभी खामियों और कमियों की ख़बर होती है । हर दरवाजे के पीछे बैठे सरकारी साहब की कीमत देने वाले जानते हैं मुसीबत की फांस कहाँ से निकालनी हैं। यक़ीनन इस बार भी कुछ ऐसा ही हुआ, बाज़ार में हल्ला है गौरांग की मौत से कई लोगों के दिन बहुर गए । करोड़ों का वारा-न्यारा हुआ । मरने वाला घर का इकलौता चिराग था, जो भीतर गए उनमें से भी कुछ घर की इकलौती शान हैं । व्यापारियों की जिन संतानों को पुलिस ने गैर इरादतन ह्त्या के मामले में जेल भेजा है उनके भविष्य की डायरी भी पुलिस को ही कोर्ट में पेश करनी है । मौत के इस मामले में जांच शुरुआत से ही कमजोर दिखाई पड़ती हैं । कड़ी दर कड़ी देखें तो पुलिस ने आरोपियों को बचने, साक्ष्य मिटाने का पूरा मौक़ा दिया । मामले की नज़ाकत को भाँपने के बाद सक्रिय हुई पुलिस स्थानीय नेताओं, मंत्रियों के दबाव में आई और वहीं से शुरू हुआ लीपापोती का खेल । कुछ लोग तो ये भी बता रहें हैं गौरांग की मौत के मामले में स्थानीय विधायक और मंत्री के फोन कॉल्स भी पुलिस के अधिकारियों को गए । साफ़-साफ़ कहा गया कोई निर्दोष नहीं फँसना चाहिए । साफ़ साफ़ मतलब था किसे बचाना है और किसे ....। इस बात को दूसरे नजरिये से देखें तो ये भी कहा जा सकता है पुलिस अधिकांशतः मामलों में निर्दोष लोगों को फंसाकर मामले का निपटारा कर देती है । यही वजह होती है 80 फीसदी से अधिक मामलों में आरोपी बाईज्जत छूट जाते हैं ।  गौरांग की मौत कई रहस्यों को साथ लेकर चली गई । मौत के मामले में पुलिस कप्तान का पिछले दिनों खुलासा भी किसी ड्रामें से कम नहीं था । सनसनीखेज मामलें में पुलिस ने करीब 40 घंटे के भीतर खुलासा कर दिया कि गौरांग की मौत गैर इरादतन हत्या है जिसमें उसके 4 दोस्त शामिल हैं । इस खुलासे में पत्रकारों से ज्यादा आमजनमानस और तमाशाई नज़र आये । कई सवाल पूछे जाने थे लेकिन प्रेस कांफ्रेंस की आड़ में किया गया ड्रामा सिर्फ पुलिस कप्तान को बोलने का मौक़ा देता रहा । कुछ ने मुँह खोलकर जिज्ञासा मिटानी चाही लेकिन साहब के तेवर देख सवाल गले से बाहर नहीं आये । 
   एक गौरांग चला गया, कई गौरांग अब भी बाकी हैं जिन्हें समय रहते घर से सही नसीहत नहीं मिली तो घर का चिराग़ हमेशा के लिए अनंत आकाश में कहीं विलुप्त हो जायेगा । समय रहते कोशिश करनी होगी अब किसी के घर का गौरांग ना तो ऐसे दोस्त बनाये ना ही ऐसे अड्डों पर वक्त जाया करे जहां से घर लौटना संभव ना हो । वैसे ये नसीहत रसूखदारों के लिए नहीं है । अब इंतज़ार रहेगा सिर्फ न्याय मिलने की तारीख का .... तब तक, शोर-शराबा और मलाल ।

Sunday 17 July 2016

तिरछी नज़र से !

 
 सोशल मीडिया और डिजिटल मीडिया के इस दौर में छिपने-छिपाने को कुछ ख़ास नहीं रह जाता । ये ऐसे मंच हैं जहां आप-हम अपने विचार उन्मुक्त भाव से साझा करते हैं और शब्दों की स्वरचित सीमा में अपनी बात को कह देने का साहस जुटा लेते हैं । जिन बातों, मुद्दों को इलेक्टॉनिक और प्रिंट मीडिया में अपेक्षित जगह नहीं मिल पाती वो सोशल मीडिया के माध्यम से दुनिया के हर कोने तक पहुंच रहें हैं । अब बिलासपुर (छत्तीसगढ़) के तत्कालीन आई.जी. पवन देव के मुद्दे को ही ले लीजिये । महिला सिपाही से मोबाईल पर अश्लील बातें करने, उसे बंगले बुलाकर उसके खूबसूरत जिस्म से प्यार करने की कोशिश ने ख़ासा बवाल मचाया । अख़बार, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने कई दिन तक पवन को सुर्ख़ियों में रखा लेकिन सोशल मीडिया और डिजिटल मीडिया पर साहब की करतूतों के चर्चे अभी भी सुर्ख़ियों में हैं । अब एक महिला का नाम सामने आया हैं जिस पर आरोप है कि उसने अपने पति को आत्महत्या के लिए मजबूर किया । पुलिस में मामला दर्ज होने के बाद आई.जी.पवन देव के व्यक्तिगत रूचि लेने पर मामले को खात्में में डाल दिया गया । अब उस महिला को बार-बार ये कहना पड़ रहा है की उसका पवन देव से कोई संबंध नहीं है । कई बार इस तरह के मामले सुर्खियां बटोरने के लिए भी किये जाते हैं लेकिन इस बार पवन के खिलाफ हवा का रुख कुछ ज्यादा ही तेज है ।
            सांस अभी बाकी है ...
             
 छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की नब्ज़ टटोलने पर ही पता चलता है उसकी सांस अभी चल रही है । सत्ता से विमुख हुए डेढ़ दशक पूरे होने को हैं, विपक्ष में रहकर भी कोई ख़ास भूमिका निभाई हो दिखाई नहीं पड़ता । पार्टी कार्यक्रम और सियासी विरोध प्रदर्शन को छोड़ दें तो कांग्रेस एक भी ऐसा मुद्दा नहीं गिना सकती जिसके दम पर सरकार की पेशानी पर बल पड़ा हो । बिलासपुर में कांग्रेस की गुटबाजी का छोर खोजने निकलें तो पता ही नहीं चलता कौन सा सिरा कहाँ किससे मिला है । बिलासपुर विधायक अमर अग्रवाल की चौथी पारी, बतौर मंत्री उनकी हैट्रिक फिर भी कांग्रेस कहती है बेईमानों का राज बदल दो... अमर अग्रवाल मस्त...जनता त्रस्त । इन नारों से नगर सेठ की सेहत पर कोई बुरा असर नहीं पड़ता, हाँ इस तरह के शोर से कांग्रेसी प्रदर्शक भी बुरे नहीं बनते । इतना विरोध, शोर शराबा सियासत के पैंतरों में शामिल है । बिलासपुर में सीवरेज और सड़क की दुर्दशा पर स्यापा मचाने वाले क्यूँ भूल रहे इसी दुर्दशा की तस्वीर के बीच सेठ ने चुनावी दंगल में बिलासपुर विधानसभा से अमर रहने का आशीर्वाद लगातार चौथी बार बटोर लिया । दूसरी बात सीवरेज के काम को किनारे कर दें तो शहर की सड़कें, गालियां, नाली और चौक-चौराहों के साथ सौंदर्यीकरण का अधिकाँश काम कांग्रेसी ठेकेदारों ने ही किया । कायम रहने के लिए नगर सेठ की देहरी पर माथा भी टेका । कई बे-गैरतमंद सियासी बाज़ार में मुँहबोली कीमत में बिके भी, फिर किस बात का स्यापा..? सड़क पर रोपा लगाकर उसकी दुर्दशा दिखाने की कोशिश में एक जुट हुए कांग्रेसी भीतर से कितने कद्दावर है ? सभी का ज़मीर जानता है, इस तरह के विरोध प्रदर्शन सिर्फ ख़बरों में बने रहने के लिए होते हैं । शहर की आबरू से सबने खेलने की कोशिश सभी ने की । सियासी खेल में शह-मात का खेल, लेकिन पिछले तीन पंचवर्षीय से एक तरफा खेल । बाजी खेलने-खिलाने वालों को भी वजहें पता है ऐसे में सड़क की दुर्दशा को लेकर प्रदशर्न ? अरे भाई गौरव पथ ने शहर का मान बढ़ाया, अरपा की रेत से तेल निकालकर उसकी दुर्दशा पर घड़ियाली आंसू, बहुत कुछ है । कहने को, सुनाने को मगर सिर्फ कहने सुनाने से नहीं बल्कि कुछ करके दिखाना होगा । शहर की दुर्दशा के लिए शायद हम सब जिम्मेवार हैं । 
                छत्तीसगढ़ जनता पार्टी (जोगी)

छत्तीसगढ़ की राजनीति में भूचाल ला देने की अफवाहों के बीच पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने कांग्रेस का दामन छोड़कर नई पार्टी बनाई । वन मैन शो के आदि रहे जोगी को कांग्रेस में लगातार उपेक्षा के दंश झेलने पड़ रहे थे । काफी शोर-शराबे और ड्रामें के बाद पार्टी बनाई गई जिसका नाम छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस (जोगी) रखा गया । पार्टी की नई कार्यकारिणी बनाई गई और अक्सर मौक़ा देख यहां वहां पहुंचकर राजनीति करने वालों को जिम्मेदारियों के बोझ तले दबाया गया । कुछ जोगी भक्त, कुछ स्वामी पसंद तो कुछ दबाव या महत्वकांक्षा बस पुराने कमिया (पूर्व मुख्यमंत्री) के साथ हो लिए । अब विडम्बना ये कि जिन लोगों को 13 साल से ज्यादा हो गए सत्ता के गलियारे से दूर हुए वो कांग्रेस तो दूर नई पार्टी का नाम भी ठीक से नहीं ले पा रहे । अजीत जोगी ने नई पार्टी की युवा टीम का गठन किया । छत्तीसगढ़ जनता युवा कांग्रेस की कार्यकारिणी में अंकित गौराह को बिलासपुर संभाग की जिम्मेवारी सौंपीं गई । नई जिम्मेवारी के लिए उन्हें मेरी भी शुभकामनाएं मगर नए संभाग प्रभारी अब भी पार्टी के नाम को लेकर असमंजस में हैं । शायद मन भाजपाई हो गया, दिल जोगी को छोड़ना नहीं चाहता और कांग्रेस के नमक का स्वाद अब भी जबान पर बाकी है । उन्होंने सोशल मीडिया पर अपनी नई जिम्मेवारियों की सूचना अख़बार की कतरन के साथ पोस्ट की । अंकित की माने तो उन्हें छत्तीसगढ़ जनता पार्टी (जोगी) में बिलासपुर संभाग का प्रभारी बनाया गया है । अखबार की कतरन कुछ और कहती है ? वैसे भी जोगी परिवार की सत्तासीन भाजपा से मधुरता छिपी नहीं है शायद अंकित ने अनजाने ही सही उसे यहां शब्दों में अंकित कर दिया ।
           इस पोस्ट पर लगी सभी कतरन सोशल और डिजिटल मीडिया से ली गई है ।