Friday 29 July 2016

ॐ शांति... ॐ शांति.. ॐ शांति

" सियासत की बिसात पर एक लाश रखी गई और उसके पैरोकारी की आड़ में सत्ता पर निशाना साधा गया । लाश को पहचानने वाले आज सैकड़ों की तादात में हैं, मगर कल तक वो अकेला था । जिंदगी की तमाम उलझनों से तंग होकर जब उसने अग्नि स्नान किया तो बचाने वाला भी कोई नहीं था । आज उसके परिवार की पैरवी करने वालों की भीड़ सरकारी नौकरी, रुपया और तमाम सरकारी सुविधाएँ मांग रही है । तमाम उम्र गुज़र जाती मगर उसका नाम पहचान को मोहताज़ रह जाता, भला हो मौत का जिसने नाम को मकबूल किया ।"
सच तो ये है कि जितने भी लोग उसकी मौत पर आज स्यापा कर सरकार को कोस रहें हैं वो खुद उसके लाश होने के पहले की पहचान से वाकिफ़ नहीं है । सोचता हूँ उस दिव्यांग के बारे में जिसे मैं खुद नहीं जानता, सिर्फ ख़बर और ख़बरों के लिए होते तमाशे ने मुझे उससे परिचय करवाया है । मैंने उसे कभी देखा भी नहीं फिर भी सोचता हूँ वो कितना कायर रहा होगा जिसने सत्ता की चौखट पर जिंदगी ख़ाक कर दी । अरे । मौत से रिश्तेदारी निभानी ही थी तो सरकार की चौखट ही क्यों भाई ? कहीं और क्यूँ नही । सरकारें मुफ़लिसी दूर नहीं करती उसे शायद ये ख़बर नहीं थी । तुम तो हमेशा के लिए चैन की नींद पा गए मगर कुछ सियासी सुरमा अचानक जाग गए हैं । सिर्फ तुम्हारी लाश का नाम पता है, उसकी आड़ में ताल ठोंककर सियासी चरित्रवलि लिख रहें हैं । कोई सड़क पर लोट रहा है तो कोई बोल बच्चन की आड़ में अपने अपने आकाओं की पैरवी करता दिखाई पड़ रहा है । सियासत की चरित्रहीनता को सबने नंगा देखा है, बात कहने-सुनने की नहीं बस मौक़ा मिलने की है । शायद उनको इससे अच्छा मौका ना मिले । 
राजनीति के खेल में कौन किसको कब किस दांव में पछाड़ दे मालूम नहीं होता । कुछ इसी तरह की धोबी पछाड़ में सूबे के सियासी सुरमा सुर ताल के साथ दाँव देने की जुगत में जनसरोकार के मसलों से दूर होते जा रहें हैं । पिछले दिनों राजधानी रायपुर के सीमावर्ती क्षेत्र बिरगांव में रहने वाले दिव्यांग योगेश साहू ने मुख्यमंत्री निवास के सामने आत्मदाह की कोशिश की । करीब 85 फीसदी जल चुके योगेश को आनन्-फानन में इलाज के लिये अस्पताल भेजा गया जहां तमाम कोशिशों के बावजूद जिंदगी रूठ गई । दरअसल योगेश मुख्यमंत्री निवास में चल रहे जनदर्शन में पहुंचकर अपनी समस्या और मांगों का पुलिंदा डाक्टर रमन सिंह को सौपना चाहता था, वक्त की हेराफेरी में उस दिन उसकी मुलाक़ात मुख्यमंत्री से नहीं हो पाई । लिहाज उसने पेट्रोल छिड़ककर खुद को आग के हवाले कर दिया । योगेश इससे पहले भी चार बार समस्याओं की गठरी बांधे मुख्यमंत्री निवास पहुँच चुका था । समस्या का बोझ शायद पहले की 4 मुलाकातों में कम नहीं हुआ होगा तभी इस बार इतना बड़ा फैसला लिया गया, मगर ये कोई रास्ता नहीं है । समस्या किसे नहीं है ? मैं ये मानता हूँ योगेश ने सिर्फ ना अपनी कायरता का परिचय दिया बल्कि उस जिम्मेवारी से भी मुँह मोड गया जो परिवार के प्रति थी । आर्थिक रूप से कमजोर दिव्यांग योगेश की मुफ़लिसी को मैंने करीब से नहीं देखा है मगर शोर है की परिवार काफी तंगहाल है । तंगहाली का मतलब ये तो नहीं कि हम ख़ुदकुशी कर लें और उन लोगों के जिंदा हो जाने का जरिया बन जाएँ जो कल तक हमारे जैसे लाखों दिव्यांगों को अपनी चौखट पर पैर तक नहीं रखने देते । सरकार के भरोसे बच्चे पैदा करना, उन्हें पढ़ाना, उनकी शादी से लेकर फिर बच्चे पैदा करने की उम्मीद हमें शायद ख़ुदकुशी को मजबूर कर रही है । 
आज हर गरीब को रोटी कपड़ा और मकान की जरूरत है । परिवार के भरण-पोषण से लेकर ईलाज तक का ठेका सरकारों ले । हम सिर्फ खाएंगे, बच्चे पैदा करके देश की जीडीपी ग्रोथ बढ़ाने में बराबर की हिस्सेदारी निभाएंगे । सरकारें मुफ्तखोरी की आदत डाल चुकीं है, वजह सत्ता की कुर्सी । जिनके पास कुर्सी नहीं वो ऐसे दिव्यांग योगेश साहू के आत्मघाती कदम पर रोटी सेकने को बेताब हैं । छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री और छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस के प्रमुख अजीत जोगी ने योगेश के आत्मघाती कदम के लिए सत्ता पक्ष को जिम्मेदार ठहराया है । उन्होंने कल ही छत्तीसगढ़ बंद का आह्वान किया जिसे आंशिक सफलता भी नहीं मिल पाई । अजीत जोगी ने सरकार से दिव्यांग के परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी, 50 लाख की सरकारी मदद के अलावा बहुत कुछ माँगा है । अच्छा है, इन्ही लोगों की नजर में जिसकी जिन्दा होते ना कोई पहचान थी, ना कोई बखत वो मौत के बाद सियासी अखाड़े में काफी कीमती और सामाजिक दिखाई पड़ने लगा । 
सवाल सिर्फ सियासत का है । 
1. आखिर कितने लोग उस दिव्यांग योगेश को सीधे तौर पर जानते हैं ? 
2. जिस भीड़ ने योगेश की मौत का मातम मनाया उसमें से कितने लोगों ने उसे जिंदगी की परेशानियों से लड़ना सिखाया ? 
3. कितने रुदाली हैं जिन्होंने योगेश की बेबसी, लाचारी पर मदद को हाथ आगे बढ़ाये ?
4. कौन-कौन लोग हैं जिन्होंने उसकी मौत के बाद उसके पतिवार की परेशानियों को कम करने का बीड़ा अपने कंधे पर लिया ? 
कई सवाल हैं साहब लिखने को पर लिखकर मुझे अच्छा नहीं लगेगा, आप पढ़ेंगे तो नाहक लाल-पीले होंगे । मुझे तो आपके तेवर की वो शक्लों सूरत भी आज तक याद है जोगी जी जब आप इस प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री बनने के बाद केबिनेट की पहली बैठक लेने अम्बिकापुर पहुंचे थे । आपकी और मेरी तल्ख़ बातों की कुछ यादें हैं जहन में लेकिन यहां जिक्र करके दिव्यांग की मौत पर होते स्यापा में खलल नहीं डालूँगा । मरने वाले की आत्मा को ईश्वर शांति दे मगर उसकी मौत पर सियासत की जुबान से निकलते आरोप-प्रत्यारोप शायद ही उसे चैन की नींद सोने दे । कल ही का पूरा ड्रामा देखे तो छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस के बंद में सिर्फ शक्ति प्रदशर्न की कोशिश रही, मौत के बहाने सरकार को ताकत दिखाने की कोशिश की गई । बंद असफल रहा, कोशिशें नाकाम दिखी । सरकार के प्रधान भी बोलने से बाज नहीं आये उन्होंने कह दिया जोगी का भ्रम इस बार टूट ही गया । उनके साथ कोई भी नहीं, सिर्फ हंगामा मचाने से सत्ता की पेशानी पर बल नहीं पड़ने वाला । वाह .... जिसके लिए तमाशे का आयोजन था उसके विषय को दरकिनार कर सियासतदार अपनी अपनी ताकत का आंकलन करते दिखे । 
मुझे लगता है, हम सब कुछ सिर्फ स्वार्थ के लिए करते हैं । सामाजिक सरोकार भी सिर्फ स्वार्थ के लिए । जनहित के मुद्दे भी अपनी रोटी सेकने की जुगत में । सोचता हूँ हम कितने चेहरे लिए बाज़ार में आम जनमानस की भीड़ में शामिल रहते हैं ? कभी मोमबत्तियाँ जलाते हैं तो कभी चेहरे की ताजगी पे चिंता के भाव दिखाकर लोगों की भावनाओं से खेलते हैं । वो सोचते हैं भीड़ उनके साथ है, मगर भीड़ की शक्ल में सबकी अपनी अपनी भावनायें निहित होती है जो ना दिन के उजाले में नज़र आती हैं ना जलाई गई मोमबत्तियों की रोशनाई में ।
अंत में सिर्फ इतना ही .... भगवन उस दिव्यांग की आत्मा को शांति देना जो इन दिनों राजनीति के चूल्हे पर कुछ लोगों की उम्मीद का पुलाव बना हुआ है । 
                                       ॐ शांति.. ॐ शांति... ॐ शांति.. ॐ शांति !

Wednesday 27 July 2016

इंतज़ार.. तब तक सिर्फ मलाल !

                                           
                                                    "उसे मालूम है कि शब्दों के पीछे
                                                      कितने चेहरे नंगे हो चुके हैं
                                                     और हत्या अब लोगों की रुचि नहीं –
                                                     आदत बन चुकी है
                                                     वह किसी गँवार आदमी की ऊब से
                                                     पैदा हुई थी और
                                                     एक पढ़े-लिखे आदमी के साथ
                                                     शहर में चली गयी"
                    गौरांग मर्डर मिस्ट्री पुलिस ने सुलझा ली है। पुलिस की कहानी पर गौरांग के परिजन और शहर के कुछ जागते लोगों को यक़ीन नहीं है । गौरांग के परिजन और शहर के जिन जागरूक लोगों का जिक्र कर रहा हूँ वो इस मामले में न्याय चाहते हैं हालांकि पुलिस की कहानी के मुताबिक़ गौरांग की मौत गैर इरादतन ह्त्या  है । पुलिस ने गैर इरादतन के कारणों का खुलासा नहीं किया है । चार रईसजादे मामले में आरोपी बनाकर ख़ास इंतज़ामात के बीच कल जेल भेज दिए गए । इस सनसनीखेज मामले का पटाक्षेप करते वक्त जिले के पुलिस कप्तान ने बिलासगुड़ी में प्रेस कांफ्रेंस बुलाई जहां पत्रकारों के अलावा सैकड़ों की संख्या में जिज्ञासु तमाशबीन मौजूद रहे । पुलिस की कहानी ज़िंदा होने का सबूत दे रहे लोगों के गले नहीं उतर रही और मैं पुलिस की लीपापोती को सालों से देखता चला आ रहा हूँ । सच अब भी गौरांग की मौत के साथ दफ़न है । कोशिश करना है इस मौत का सच और वजह दोनों सामने आये साथ ही क़ानून के कुछ पैरोकारों की घिनौनी सूरत । ताकि लोग भी देखें रसूखीयत की चौखट पर कानून के विवेचक कितने बौने और बेईमान हैं ।
                                                   मैं इस बात से खुश हूँ कि जिस शहर का वाशिंदा हूँ वहां अब भी कुछ लोग ज़िंदा हैं । कभी-कभी भ्रम होता था मुर्दों के शहर में मैं रोज सुबह घर से निकलकर कमाने-खाने बाहर शहर को चला जाता हूँ, रात होते ही फिर अपने घरौंदें में । क्या हूँ, किसके साथ हूँ और किस काम को करता हूँ ? इससे ज्यादा की ख़बर नहीं थी मुझे । स्मार्ट होते शहर बिलासपुर में पिछले गुरूवार (20/21 जुलाई की दरम्यानी रात) को अय्याशी के एक अड्डे (रामा मेग्नैटो मॉल के टीडीएस बार) में गौरांग बोबड़े नाम के एक युवक की खून से सनी लाश संदिग्ध परिस्थितियों में पाई गई । मामला मॉल की दहलीज से निकलकर पुलिस की चौखट पर पहुँचा । मौक़ा मुआयना और मरने वाले की ख़बर घर तक पहुंचाकर पुलिस ने विवेचना की शुरुआत की । इस बीच ख़बर संस्कारधानी से निकलकर राजधानी रायपुर होते हुए देश की राजधानी दिल्ली तक पहुँच गई । मीडिया के शोर शराबे और पीड़ित परिवार के रुदन पर कुछ लोग सामने आये । चूँकि मामला बड़े घर के बिगड़े नवाबों से जुड़ा था लिहाजा हल्ला मचना स्वाभाविक हो गया । दरअसल मृतक गौरांग बोबड़े का एक मित्र केलिफोर्निया में रहता है जो पिछले दिनों बिलासपुर आया था । मित्र के विदेश से आने की ख़ुशी में कुछ देशी मित्रों ने पार्टी का इंतज़ाम किया। पार्टी शहर के मशहूर टीडीएस बार में रखी गई जहां शराब,शबाब और कबाब का भरपूर इंतज़ाम था । थिरकती बार बालाओं की अदाओं के बीच जाम पे जाम छलकते गए । नशे की खुमारी सर चढ़ती गई और वक्त पहर पे पहर बदलता गया । रात को शुरू हुई महफ़िल का दौर तड़के ढाई बजे तक चलता रहा, इस बीच आखिर क्या हुआ ? क्यों हुआ ? किसने किया ? कई सवाल... सुबह सिर्फ ख़बर मातम की बाहर आई । विदेशी मेहमान और गौरांग के दोस्त की खातिरदारी में टीडीएस बार सुबह ढाई बजे तक खुला रहा, बाउंसर और सुरक्षाकर्मी ड्यूटी पर मौजूद रहे । हालांकि ये पहला मौक़ा नहीं था जब भोर तलक टीडीएस बार की रौशनाई में जामें दौर छलकता रहा । ये वो अड्डा है जहां रात के अँधेरे में शहर के कुछ सफेदपोश और उनकी संताने पैसों की गर्मी में तपते तपते इस कदर नंगी होती हैं कि देखने वाले को यक़ीन भी नहीं होता ये ज़नाब फ़लाना चावलानी हैं या फिर ढिमका लाल अग्रवाल । शायद उस रात भी कुछ ऐसा ही हुआ । लेकिन ऐसा क्या हुआ की विदेश से आये दोस्त के साथ पहुंचे देशी दोस्त आज गैर इरादतन ह्त्या के आरोपी बना दिए गए ? क्यूँ गौरांग ही मारा गया ? क्या दोस्तों के बीच किसी तरह का विवाद हुआ, कोई पुरानी रंजिश थी ? आख़िर क्यों मारा गया या हादसे में मर गया गौरांग ? कई सुलगते सवाल है जो पहले भी उठाये जा चुके हैं । मौकाए-वारदात का मुआयना करने के बाद पुलिस ने भी माना था मामला हत्या का हो सकता है फिर विवेचना में गैर इरादतन हत्या का खुलासा क्यों ? आम चर्चा में इस मौत को हत्या ही माना गया, जनशोर की माने तो हत्या बार के बाउंसरों ने की जिसमें कुछ दोस्तों का हाथ है । मगर पुलिस कप्तान के खुलासे ने सारी संभावनाओं और आशंकाओं को ही ख़त्म कर दिया । पुलिस की लंबी विवेचना और संदेहियों से पूछताछ के बीच उन कयासों पर भी निराशा ही हाथ लगी जिसमें डाक्टरों ने जिक्र किया था लाश पर चोट के निशान और फटा हुआ लिवर सामान्य रूप से सीढ़ी से गिराने-गिरने से संभव नहीं ।
 अब गौरांग के परिवार को न्याय चाहिए । गौरांग की बहन ने पुलिस की विवेचना और उसके तरीके पर पहले ही शक जाहिर कर दिया था वो अपने भाई को न्याय दिलाने के लिए आखरी सांस तक लड़ने का ऐलान कर चुकी है । न्याय के मंदिर पर पूरा भरोसा है, अब उसे साथ के लिए सिर्फ उन लोगों की जरूरत है जो ज़िंदा होने की बात कहते हैं । ये लड़ाई एक बेटे,भाई को न्याय दिलाने के लिए शुरू की गई है जिसमें काफी लोग एकजुट हैं । इधर इस मामले में पुलिस की कार्रवाही पर हर जुबां पर सैकड़ों सवाल हैं मगर जवाब देने कोई तैयार नहीं । गौरांग की मौत और उससे जुड़े सभी सवालों को लेकर काफी दबाव पुलिस पर भी रहा । हत्या या हादसा ? पुलिस किसे पकड़ती, किसे छोड़ती। सारे नवाब रुपयों की गर्मी के बीच पलकर बड़े हुए । मालूम था करतूत के अंजाम का खर्च । उन्हें शायद पता थी सबकी कीमत तभी तो पुलिस की एफआईआर के मुताबिक़ गैर इरादतन हत्या के आरोपी जेल भेजे जाने तक पुलिस की ख़ास व्यवस्था के बीच रहे । घर का लज़ीज़ खाना, नाश्ता-चाय सब कुछ स्वादानुसार दिया जाता रहा । अब आरोपियों के परिजन जेल की चाहर दिवारी के इर्द-गिर्द मज़मा लगाये खड़े हैं । दरअसल रसूखदारों को इस सिस्टम की सभी खामियों और कमियों की ख़बर होती है । हर दरवाजे के पीछे बैठे सरकारी साहब की कीमत देने वाले जानते हैं मुसीबत की फांस कहाँ से निकालनी हैं। यक़ीनन इस बार भी कुछ ऐसा ही हुआ, बाज़ार में हल्ला है गौरांग की मौत से कई लोगों के दिन बहुर गए । करोड़ों का वारा-न्यारा हुआ । मरने वाला घर का इकलौता चिराग था, जो भीतर गए उनमें से भी कुछ घर की इकलौती शान हैं । व्यापारियों की जिन संतानों को पुलिस ने गैर इरादतन ह्त्या के मामले में जेल भेजा है उनके भविष्य की डायरी भी पुलिस को ही कोर्ट में पेश करनी है । मौत के इस मामले में जांच शुरुआत से ही कमजोर दिखाई पड़ती हैं । कड़ी दर कड़ी देखें तो पुलिस ने आरोपियों को बचने, साक्ष्य मिटाने का पूरा मौक़ा दिया । मामले की नज़ाकत को भाँपने के बाद सक्रिय हुई पुलिस स्थानीय नेताओं, मंत्रियों के दबाव में आई और वहीं से शुरू हुआ लीपापोती का खेल । कुछ लोग तो ये भी बता रहें हैं गौरांग की मौत के मामले में स्थानीय विधायक और मंत्री के फोन कॉल्स भी पुलिस के अधिकारियों को गए । साफ़-साफ़ कहा गया कोई निर्दोष नहीं फँसना चाहिए । साफ़ साफ़ मतलब था किसे बचाना है और किसे ....। इस बात को दूसरे नजरिये से देखें तो ये भी कहा जा सकता है पुलिस अधिकांशतः मामलों में निर्दोष लोगों को फंसाकर मामले का निपटारा कर देती है । यही वजह होती है 80 फीसदी से अधिक मामलों में आरोपी बाईज्जत छूट जाते हैं ।  गौरांग की मौत कई रहस्यों को साथ लेकर चली गई । मौत के मामले में पुलिस कप्तान का पिछले दिनों खुलासा भी किसी ड्रामें से कम नहीं था । सनसनीखेज मामलें में पुलिस ने करीब 40 घंटे के भीतर खुलासा कर दिया कि गौरांग की मौत गैर इरादतन हत्या है जिसमें उसके 4 दोस्त शामिल हैं । इस खुलासे में पत्रकारों से ज्यादा आमजनमानस और तमाशाई नज़र आये । कई सवाल पूछे जाने थे लेकिन प्रेस कांफ्रेंस की आड़ में किया गया ड्रामा सिर्फ पुलिस कप्तान को बोलने का मौक़ा देता रहा । कुछ ने मुँह खोलकर जिज्ञासा मिटानी चाही लेकिन साहब के तेवर देख सवाल गले से बाहर नहीं आये । 
   एक गौरांग चला गया, कई गौरांग अब भी बाकी हैं जिन्हें समय रहते घर से सही नसीहत नहीं मिली तो घर का चिराग़ हमेशा के लिए अनंत आकाश में कहीं विलुप्त हो जायेगा । समय रहते कोशिश करनी होगी अब किसी के घर का गौरांग ना तो ऐसे दोस्त बनाये ना ही ऐसे अड्डों पर वक्त जाया करे जहां से घर लौटना संभव ना हो । वैसे ये नसीहत रसूखदारों के लिए नहीं है । अब इंतज़ार रहेगा सिर्फ न्याय मिलने की तारीख का .... तब तक, शोर-शराबा और मलाल ।

Sunday 17 July 2016

तिरछी नज़र से !

 
 सोशल मीडिया और डिजिटल मीडिया के इस दौर में छिपने-छिपाने को कुछ ख़ास नहीं रह जाता । ये ऐसे मंच हैं जहां आप-हम अपने विचार उन्मुक्त भाव से साझा करते हैं और शब्दों की स्वरचित सीमा में अपनी बात को कह देने का साहस जुटा लेते हैं । जिन बातों, मुद्दों को इलेक्टॉनिक और प्रिंट मीडिया में अपेक्षित जगह नहीं मिल पाती वो सोशल मीडिया के माध्यम से दुनिया के हर कोने तक पहुंच रहें हैं । अब बिलासपुर (छत्तीसगढ़) के तत्कालीन आई.जी. पवन देव के मुद्दे को ही ले लीजिये । महिला सिपाही से मोबाईल पर अश्लील बातें करने, उसे बंगले बुलाकर उसके खूबसूरत जिस्म से प्यार करने की कोशिश ने ख़ासा बवाल मचाया । अख़बार, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने कई दिन तक पवन को सुर्ख़ियों में रखा लेकिन सोशल मीडिया और डिजिटल मीडिया पर साहब की करतूतों के चर्चे अभी भी सुर्ख़ियों में हैं । अब एक महिला का नाम सामने आया हैं जिस पर आरोप है कि उसने अपने पति को आत्महत्या के लिए मजबूर किया । पुलिस में मामला दर्ज होने के बाद आई.जी.पवन देव के व्यक्तिगत रूचि लेने पर मामले को खात्में में डाल दिया गया । अब उस महिला को बार-बार ये कहना पड़ रहा है की उसका पवन देव से कोई संबंध नहीं है । कई बार इस तरह के मामले सुर्खियां बटोरने के लिए भी किये जाते हैं लेकिन इस बार पवन के खिलाफ हवा का रुख कुछ ज्यादा ही तेज है ।
            सांस अभी बाकी है ...
             
 छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की नब्ज़ टटोलने पर ही पता चलता है उसकी सांस अभी चल रही है । सत्ता से विमुख हुए डेढ़ दशक पूरे होने को हैं, विपक्ष में रहकर भी कोई ख़ास भूमिका निभाई हो दिखाई नहीं पड़ता । पार्टी कार्यक्रम और सियासी विरोध प्रदर्शन को छोड़ दें तो कांग्रेस एक भी ऐसा मुद्दा नहीं गिना सकती जिसके दम पर सरकार की पेशानी पर बल पड़ा हो । बिलासपुर में कांग्रेस की गुटबाजी का छोर खोजने निकलें तो पता ही नहीं चलता कौन सा सिरा कहाँ किससे मिला है । बिलासपुर विधायक अमर अग्रवाल की चौथी पारी, बतौर मंत्री उनकी हैट्रिक फिर भी कांग्रेस कहती है बेईमानों का राज बदल दो... अमर अग्रवाल मस्त...जनता त्रस्त । इन नारों से नगर सेठ की सेहत पर कोई बुरा असर नहीं पड़ता, हाँ इस तरह के शोर से कांग्रेसी प्रदर्शक भी बुरे नहीं बनते । इतना विरोध, शोर शराबा सियासत के पैंतरों में शामिल है । बिलासपुर में सीवरेज और सड़क की दुर्दशा पर स्यापा मचाने वाले क्यूँ भूल रहे इसी दुर्दशा की तस्वीर के बीच सेठ ने चुनावी दंगल में बिलासपुर विधानसभा से अमर रहने का आशीर्वाद लगातार चौथी बार बटोर लिया । दूसरी बात सीवरेज के काम को किनारे कर दें तो शहर की सड़कें, गालियां, नाली और चौक-चौराहों के साथ सौंदर्यीकरण का अधिकाँश काम कांग्रेसी ठेकेदारों ने ही किया । कायम रहने के लिए नगर सेठ की देहरी पर माथा भी टेका । कई बे-गैरतमंद सियासी बाज़ार में मुँहबोली कीमत में बिके भी, फिर किस बात का स्यापा..? सड़क पर रोपा लगाकर उसकी दुर्दशा दिखाने की कोशिश में एक जुट हुए कांग्रेसी भीतर से कितने कद्दावर है ? सभी का ज़मीर जानता है, इस तरह के विरोध प्रदर्शन सिर्फ ख़बरों में बने रहने के लिए होते हैं । शहर की आबरू से सबने खेलने की कोशिश सभी ने की । सियासी खेल में शह-मात का खेल, लेकिन पिछले तीन पंचवर्षीय से एक तरफा खेल । बाजी खेलने-खिलाने वालों को भी वजहें पता है ऐसे में सड़क की दुर्दशा को लेकर प्रदशर्न ? अरे भाई गौरव पथ ने शहर का मान बढ़ाया, अरपा की रेत से तेल निकालकर उसकी दुर्दशा पर घड़ियाली आंसू, बहुत कुछ है । कहने को, सुनाने को मगर सिर्फ कहने सुनाने से नहीं बल्कि कुछ करके दिखाना होगा । शहर की दुर्दशा के लिए शायद हम सब जिम्मेवार हैं । 
                छत्तीसगढ़ जनता पार्टी (जोगी)

छत्तीसगढ़ की राजनीति में भूचाल ला देने की अफवाहों के बीच पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने कांग्रेस का दामन छोड़कर नई पार्टी बनाई । वन मैन शो के आदि रहे जोगी को कांग्रेस में लगातार उपेक्षा के दंश झेलने पड़ रहे थे । काफी शोर-शराबे और ड्रामें के बाद पार्टी बनाई गई जिसका नाम छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस (जोगी) रखा गया । पार्टी की नई कार्यकारिणी बनाई गई और अक्सर मौक़ा देख यहां वहां पहुंचकर राजनीति करने वालों को जिम्मेदारियों के बोझ तले दबाया गया । कुछ जोगी भक्त, कुछ स्वामी पसंद तो कुछ दबाव या महत्वकांक्षा बस पुराने कमिया (पूर्व मुख्यमंत्री) के साथ हो लिए । अब विडम्बना ये कि जिन लोगों को 13 साल से ज्यादा हो गए सत्ता के गलियारे से दूर हुए वो कांग्रेस तो दूर नई पार्टी का नाम भी ठीक से नहीं ले पा रहे । अजीत जोगी ने नई पार्टी की युवा टीम का गठन किया । छत्तीसगढ़ जनता युवा कांग्रेस की कार्यकारिणी में अंकित गौराह को बिलासपुर संभाग की जिम्मेवारी सौंपीं गई । नई जिम्मेवारी के लिए उन्हें मेरी भी शुभकामनाएं मगर नए संभाग प्रभारी अब भी पार्टी के नाम को लेकर असमंजस में हैं । शायद मन भाजपाई हो गया, दिल जोगी को छोड़ना नहीं चाहता और कांग्रेस के नमक का स्वाद अब भी जबान पर बाकी है । उन्होंने सोशल मीडिया पर अपनी नई जिम्मेवारियों की सूचना अख़बार की कतरन के साथ पोस्ट की । अंकित की माने तो उन्हें छत्तीसगढ़ जनता पार्टी (जोगी) में बिलासपुर संभाग का प्रभारी बनाया गया है । अखबार की कतरन कुछ और कहती है ? वैसे भी जोगी परिवार की सत्तासीन भाजपा से मधुरता छिपी नहीं है शायद अंकित ने अनजाने ही सही उसे यहां शब्दों में अंकित कर दिया ।
           इस पोस्ट पर लगी सभी कतरन सोशल और डिजिटल मीडिया से ली गई है ।

Monday 11 July 2016

राम के भक्त रहीम के बन्दे !

                       
  "उनकी माँ को मरे हुए अभी तेरह दिन भी पूरे नहीं हुए थे, बेटे संपत्ति बटवारे को लेकर निर्वस्त्र सड़क पर बैठ गए । कोई कह रहा था कलह सालों पुराना है, माँ के मरते ही बाज़ारू हो गया । जर-जोरू और ज़मीन के विवाद सालों पुराने हैं । इनके परिणाम कभी सुखद नहीं रहे फिर भी लोग लड़ते रहे, लाशें गिरती रहीं। संपत्ति को लेकर आदम की नग्नता सदियों पुरानी है। महाभारत हुई, इतिहास गवाह है किसे क्या मिला ? कल जब उसके बेटे निर्वस्त्र होकर संस्कारधानी में अपने ही खून से हिस्सा-बँटवारा मांग रहे थे उस दौरान तमाशाइयों का लगा मज़मा अफवाहों के बाजार में गर्माहट पैदा करता रहा। किसी ने धर्म से जोड़कर कुछ बाते कह दीं तो कोई कुछ और कहता रहा । जितने मुंह उतनी बातें, मानसिक नग्नता के शिकार तीन लोग निर्वस्त्र होकर सड़क पर क्यों मौन धरे बैठ गए तमाशाइयों को आज के अखबारों ने बताया ।" 
         अमूमन रविवार को मेरे शहर की दुकाने बंद रहती हैं लेकिन फुटपाथ पर लगा बाज़ार लोगों की भीड़ से गुलज़ार रहता है । लाखों का व्यापार फुटपाथ से होता है । कल भी सब कुछ पिछले रविवारों की तरह ही चल रहा था, अचानक सदर बाज़ार में लोगों की आवाजाही थम सी गई । देखते ही देखते भीड़ की शक्ल बड़ी दिखाई दी । जिस किसी को देखो भीड़ में हिस्सेदार बनता रहा । दरअसल भीड़ के बीच का नज़ारा ही कुछ ऐसा था । एक व्यक्ति स्कार्पियो की छत पर नग्न अवस्था में आसन लगाये बैठा था, दूसरा सामने की दुकान के चबूतरे पर और तीसरा नंगा वाहन के भीतर । भीड़-भाड़ वाले इलाके में तीन इंसान निर्वस्त्र, मौन साधे। तमाशाइयों के मन में कौतूहल, आखिर ये निर्वस्त्र त्रिदेव कौन हैं ? कुछ ने उन्हें तपस्वी मान लिया, तो कोई बाज़ार में इस लीला को कुछ और नाम देता रहा ।
                  इस तमाशे की हकीक़त सिर्फ पुश्तैनी संपत्ति और मौत के बाद बूढी माँ के जेवरात का बँटवारा थी । शहर में रहने वाले एक जैन परिवार के तीन सदस्यों की शारीरिक, मानसिक और आर्थिक नग्नता कल बीच बाज़ार थी । अंग प्रदर्शन की तस्वीरें मोबाईल के जरिये सोशल मिडिया फिर अख़बार में सुर्खियां बनी । इस जैन परिवार का सदर बाज़ार में मकान और एक कपड़ा दुकान है । 29 जून को इस परिवार को सहेजकर रखने वाली महिला संसार से हमेशा हमेशा के लिए रुख़सत हो गई । माँ को संसार छोड़े अभी 10 ही दिन हुए थे कि बेटे आपस में लड़ बैठे । बेटों को माँ के गहनों और पुरखौती संपत्ति में बराबर का हिस्सा चाहिए । घर के भीतर का विवाद जब बाहर सड़क पर नग्नता की शक्ल में आया तो हर आने-जाने वालो को खबर हो गई कपड़ा बेचने वाले जैन व्यापारी कितने खोखले हैं । शहर के आवाम की नज़रों में कपड़ा बेचने वाला परिवार आज सिर्फ शारीरिक रूप से नंगा नहीं था बल्कि उसने अपनी संवेदनहीनता के साथ पशुवत आचरण की नई मिशाल पेश कर दी थी । माँ की तेरही कार्यक्रम के ठीक एक दिन पहले का ये मंजर आज के इंसान की असल सूरत दिखा रहा था जिस पर कभी मच्छर तो कभी मख्खियाँ भिन-भिना रहीं थी । घर के भीतर का क्लेश जब सड़क पर कपड़ा उतारकर खड़ा हुआ तो पुलिस को हस्तक्षेप करना पड़ा । मौके पर पहुंची पुलिस ने पहले उन तमाशाइयों को खदेड़ा जो सारा काम काज छोड़कर सदर बाज़ार की मुख्य सड़क पर यातायात अवरुद्ध कर रहे थे । उसके बाद जेवरात और संपप्ति के लालचियों को थाने लाकर समझाईश दी गई, चूँकि पुलिस हस्तक्षेप लायक मामला नहीं था लिहाज चेतावनी देकर लोगों को छोड़ दिया गया । इधर पूरे मामले में तमाशाइयों के फुर्सत भरे लम्हों को सोचकर हंसी आती है । लोग अक्सर दूसरों के विवाद या घटनाक्रम में भीड़ का हिस्सा तो बन जाते हैं मगर उन्हें घटनाक्रम की वस्तु स्थिति की जानकारी नहीं होती । इस तरह की भीड़ अक्सर सामान्य माहौल बिगाड़ने में अहम् भूमिका निभाती है । साथ ही इस तरह के नंगों को बल देती है । 
                                      समाज के भीतर का खोखलापन और हम इंसानों की बदलती मनोवृत्ति का सबूत देती ये घटना उस हकीकत से भी वाकिफ़ करवाती हैं जहां एक ही कोख से जन्मी संताने ताउम्र एक दूसरे की दुश्मन बनी हुई हैं । विवादों की वजहें अलग-अलग हो सकती हैं । एक बात और इस दौर में अपनापन, संवेदना जैसे शब्दों को लिए हम जब भी चेहरे तलाशने निकलेंगे हाथ खाली ही मिलेगा । एक घर, एक छत के नीचे रहकर लोग सिर्फ अपने लिए जी रहें हैं । कवि प्रदीप जी दशकों पहले लिख गए ... 
                                                 राम के भक्त रहीम के बन्दे ,रचते आज फरेब के फंदे 
                                                 कितने ये मक्कार ये अंधे ,देख लिए इनके भी फंदे 
                                                 इन्ही की काली करतूतों से, बना ये मुल्क मसान 
                                                कितना बदल गया इंसान....  आज भाई-भाई का नहीं, बेटा माँ-बाप की मौत की बाट जोहता मन के भीतर लालसा के पौधे की जड़ों को मजबूत कर रहा  । बीवी पति को लेकर अलग रहने को व्याकुल । क्यों आखिर ?  
                       क्यूँ ये नर आपस में झगड़ते , काहे लाखों घर ये उजड़ते 
                       क्यूँ ये बच्चे माँ से बिछड़ते....  सच ही तो है आखिर कहाँ पहुँच गए हम लोग, किस दौर में हैं जहां कोई अपना नहीं ?

Thursday 7 July 2016

देव को 'आशीष'

                                       
                                
                                             "मेरे पास उत्तेजित होने के लिए कुछ भी नहीं है
                                                  न कोकशास्त्र की किताबें, न युद्ध की बात
                                                  न गद्देदार बिस्तर, न टाँगें, न रात,चाँदनी
                                         कुछ भी नहीं... " ये सुदामा प्रसाद पांडेय [धूमिल] कहते है जिनके पास उत्तेजना के लिए कुछ भी नहीं पर जिनके पास उत्तेजित होने के लिए सब कुछ है वो क्यों सुर्ख़ियों में हैं ? अरे उनकी कामुकता के चर्चे बाज़ार में यूँ आम हुए जैसे कोई सेठ घरवाली के बाहर जाते ही नौकरानी संग रास रचाता पकड़ लिया जाता है। पकडे जाने के बाद 'देव' दुहाई देता है ... भगवान जानता है सच क्या है ? अरे साहब हर गुनहगार की एक ही दलील होती है " मुझे साजिश के तहत फँसाया गया हैं, मैं बिल्कुल निर्दोष हूँ।"  
       जून बीत गया था, बस आखरी तारीख निकल जाती तो शायद बदनामी का चन्दन माथे पर नहीं लगता। संस्कारधानी [बिलासपुर] में क़ानून के जानकार और पुलिस महकमें के बड़के साहब यानि रेंज के महानिरीक्षक पवन देव अक्सर छेड़खानी करते रहें हैं। आज के अख़बार कहते हैं जहां रहे छेड़छाड़ की। शिकायतें  और उनकी महिलाओं से बे-तक्लुफि के कई किस्से राज्य के पुलिस मुख्यालय में हैं। हर बार देव ने भगवन के हवाले से कह दिया साजिश का शिकार हो गया। इस बार के वाक्ये को सुनने और सिलसिलेवार घटनाक्रम की कड़ियों को जोड़ने पर मुझे भी लगता है 'देव' को किसी ने छेड़छाड़ में फंस जाने का 'आशीष ' दे दिया। ३० जून के अखबारों ने बताया बिलासपुर रेंज के पुलिस महानिरीक्षक पवन देव पिछले दो साल से एक महिला आरक्षक को छेड़ रहें हैं। अक्सर साहब अपने रुतबे को सामने रख अश्लीलता के किस्से मोबाईल के जरिये महिला आरक्षक को सुनाया करते थे। बंगले बुलाना, खूबसूरत फिगर की तारीफ़ कर प्यार करने की बातें अक्सर हुआ करती थीं, फिर उस रात ऐसा क्या हुआ जो साहब की नशीली आवाज सोशल मीडिया के जरिये लोगों तक पहुँच गई ? इतना ही नहीं आधी रात को बंगले बुलाने की गुस्ताखी थाने के रास्ते राज्य महिला आयोग तक पहुँची । आरोप लगा रही महिला आरक्षक ने सरकार की चौखट पर दस्तक दी तो जांच की बात कहकर तबादले की गाज गिराकर देव को पुलिस मुख्यालय बुला लिया गया। अब देव राजधानी में हैं, इस तरह के मामलों में पहले भी मुख्यालय में लूप लाइन वाली कुर्सी पा चुके हैं। साहब पर जिस दिन आरोप लगाया गया उसके एक दिन पहले ही उन्होंने पदानवत किये गए उपनिरीक्षक आशीष वासनिक को सेवा से बर्खास्त किये जाने का आदेश जारी किया था। सवाल और संदेह आशीष की ओर इशारा करते हैं, आरोपों से घिरे साहब भी उसी की करतूत मानते हैं। महिला आरक्षक भी मीडिया को दिए बयान में बर्खास्त पुलिस कर्मी वासनिक से घनिष्ट सम्बन्ध होना स्वीकार कर चुकी है। सवाल आखिर तीन साल से साहब की छेड़छाड़ और अश्लीलता को बर्दाश्त करने वाली महिला अचानक रुष्ठ क्यों हो गई ? जांच का विषय है, निष्पक्ष हुई तो कई करतूतों के साथ चेहरों से मुखौटे हट जाएंगे। 
      ये महज एक नाम है जिसका चेहरा आपसी खींचतान के चलते बेनकाब हो गया । पवन देव का कार्यकाल सुर्ख़ियों में रहा है, आशीष की कार्यशैली से विभाग और मित्र वाकिफ़ ही हैं । किसी ने सच ही कहा है पुलिस वालों की दोस्ती अच्छी ना दुश्मनी । राज्य में कई प्रशासनिक अफसरों के चेहरे महिलाओं की अस्मत से जुड़े मामलों को लेकर सामने आते रहें हैं । कईयों ऐसे प्रसासनिक अफ़सर हैं जिनको इज़्ज़त की नज़रों से नही देखा जाता क्योंकि 'जिस्म' उनकी जरूरत बन चुकी है । प्रशासनिक ओहदे की आड़ में ऐसे अफसरों  की भूख मिटती रहती है और इन तक पहुँचने या पहुंचाने वाली महिलाओं की तरक्की के रास्ते एकाएक खुल जाते हैं । राज्य में बड़े पदों पर आसीन कई चेहरें दिन के उजाले में जितने सलीकेदार दिखाई पड़ते हैं दिन ढलते ही या मौक़ा मिलते ही उनकी नंगी मानसिकता खुलकर सामने आ जाती है । सवाल दिमागी नग्नता का नही बल्कि उस दोहरे चरित्र का है जो समाज की भीड़ में कुछ और कहता है और अकेले में उसी इज़्ज़त का वस्त्र उतारकर अपनी हवस मिटाने पर आमादा दिखाई पड़ता है । कुछ अफसरों की सादगी, समाज को लेकर उनका नजरिया, महिलाओं के प्रति उनकी सोच और सार्वजनिक मंच से ज्ञान बघारने का शोर अक्सर हमको भ्रमित कर देता है । हकीकत जब सामने आती है तो मालूम होता है फलां साहब भी.... शौक़ीन हैं। देव साहब का शौक अब सार्वजनिक है । कुछ और नाम है जो पहले ही नाम कमा चुके हैं ।  देखते हैं पवन के मामले में बैठाई गई जांच कितने दिनों में सामने आती है और सच के कितने करीब होगी ? 

Wednesday 6 July 2016

'मोदी मिशन' को फटका

    इस देश के वजीरे आजम [प्रधानमंत्री] चाहतें हैं हम साफ़-सुथरे रहें, गंदगी से तौबा कर लें और आस-पास के वातावरण को भी स्वच्छ बनाने में सहयोग दें। गुलामी से  मुक्त होने के बाद हम आज तलक गंदे हैं, ऐसा हमारा मुखिया मानता है । असंख्य कुर्बानियों के बाद हम गोरों से आजाद तो हो गए मगर मानसिक गंदगी ने अब तक हमारा साथ नहीं छोड़ा। अटूट रिश्ता है गंदगी से, तभी तो भारतीय तहज़ीब और तमीज़ के बीच रहने वालों को आज भी स्वच्छता से रहने का सलीका सिखाना पड़ रहा है। हमको आज भी बताया जा रहा है खुले में शौच नहीं करना चाहिए, करोड़ों रूपये जागरूकता में खर्च करके विद्या बालन से कहलवाया जा रहा है 'जब सोच और इरादा नेक हो तो सब सुनते हैं।'   
                                मुझे तो किसी के इरादे और सोच नेक नज़र नहीं आती तभी तो "स्वच्छ भारत" की सोच पर आज भी केवल "जहां सोच वहां शौचालय" और "एक कदम स्वच्छता की ओर" का शोर सुनाई देता है। जमीनी हकीकत, शहर से गाँव आज भी दुर्गन्ध और सड़ांध मारते दिखाई पड़ते हैं। वजह फिर वही 'जब सोच और इरादा नेक हो तो सब सुनते हैं।' यकीनन इसी की कमी रह गई। हाँ सरकारी तस्वीरें देखें तो भारत के गाँव और शहर स्वच्छता की ओर एक दो नहीं बल्कि कई कदम आगे बढ़ा चुके हैं लेकिन मैं जो तस्वीर खींचता हूँ उसमें सिर्फ गंदगी दिखाई पड़ती है। शासन-प्रशासन के बे-सुध होने के साथ-साथ हमारी मानसिक गंदगी का प्रमाण मेरी तस्वीरों में साफ़ दिखाई देता है। आप ये भी कह सकते हैं कि मुझे या मेरे कैमरे को गंदगी देखने की आदत है या मैं गंदगी पसंद इंसान हूँ। बेशक आपका मत हो सकता है लेकिन मुझे बिना खोजे ही सड़ांध मारती गंदगी अक्सर यहां-वहां दिखाई पड़ जाती है। हमारे मुल्क के प्रधान [मोदी जी] ने दिल्ली की कुर्सी पर बैठते ही बता दिया था भारत गंदगी से अटा पड़ा है जिसे मिलकर स्वच्छ बनाना है। हम, हमारा हिन्दुस्तान दशकों से स्वच्छता के लिए किसी मसीहा के इंतज़ार में था। ऐसे में एक जमीन से जुड़े इंसान को काम करने का अवसर हम सब ने मिलकर दिया। दो साल पहले बापू की जयन्ती पर स्वछता को लेकर एक बड़े अभियान की शुरुआत की गई। देश की राजधानी दिल्ली से झाड़ू लगाने का काम शुरू हुआ जो अलग-अलग प्रांतों के रास्ते गाँव-गाँव पहुंचा। उदेश्य 'क्लीन इंडिया'
                  वैसे पिछले दो वर्ष में झाड़ू काफी सुर्ख़ियों में रहा। सियासत के गलियारे में झाड़ू चली तो बड़े-बड़े जमीन तलाशते नज़र आये। दिल्ली में झाड़ू ने नया इतिहास रचा। पुराने दिगज्जों का सफाया कर झाड़ू ने जनता के मुताबिक़ साफ़-सुथरा केजरी [अरविन्द केजरीवाल] दिया। अब उनकी कथनी-करनी का हिसाब दिल्ली वाले जाने लेकिन जिस झाड़ू के जरिये भारत को स्वच्छ रखने का सन्देश वजीरे आजम ने दिया उसमें काफी लोगों ने बड़ी सफाई से हाथ साफ़ किया। इंडिया को क्लीन बनाने के लिए करोड़ों रूपये गंदगी के बीच बहा दिए गए। सफाई के नाम पर खरीदी गई झाड़ू और कचरा साफ़ करने के व्ही.व्ही.आई.पी इंतज़ाम में साहब से लेकर चाकर तक लाल हो गए। देश के प्रधानमन्त्री से लेकर मंत्री-अफसर और संत्री सबने जरूरत के हिसाब से फटका मारा। स्वछता अभियान के लिए सरकारी कार्य योजना तैयार की गई। शासन-प्रशासन का हर नुमाइंदा झाड़ू मारकर सफाई की वकालत में जुट गया। कुछ महीने पहले तक हालात ये थे की जिसे पूछो ... जवाब में झाड़ू-फटका मारने की बात कहता । साफ़-सुथरी जगहों पर व्ही.व्ही.आई.पी  झाड़ू मारते रहे और गंदगी के माहौल को साफ़ करने का ठेका स्कूली बच्चों से लेकर आम जनता के मथ्थे मढ़ दिया गया। मोदी की परिकल्पना पर झाड़ू मारकर सफाई का सन्देश फैलाने वाले मंत्री-संत्री और अफसर अक्सर मुंह में भरी गंदगी के निशान सड़क पर छोड़ आगे बढ़ जाते। वो दरअसल सबूत होता है हमारी स्वच्छता का। हमारे उजले तन के भीतर की गंदगी अक्सर लोगों को दिखाई नहीं पड़ती। यक़ीन मानिए हमारे भीतर छिपी उसी गंदगी के प्रमाण शहर की गलियों, चौक-चौराहों पर दिखाई पड़ते हैं जिनसे मानवीय प्रवित्ति की बू आती है। 
                          कल ही मैंने अपने सूबे [छत्तीसगढ़] की राजधानी रायपुर के पंडरी इलाके में कुछ तस्वीरें खींचीं। कई दिन से उस गंदगी को देख रहा था, अक्सर उसी रास्ते मेरा आना-जाना होता है। दफ्तर उसी ओर है इस लिहाज से पेट के लिए रोज गंदगी लांघना पड़ता है। गंदगी देखने की करीब-करीब आदत ही पड़ गई है, वो किसी भी तरह की हो। मुझे रोज दिखाई देने वाली गंदगी से आती बू का भी अहसास है। अब नाक बंद करने की जरूरत नहीं पड़ती क्यूंकि उस इलाके में पहुँचते ही दिमागी तौर पर मैं तैयार हो जाता हूँ। इस गंदगी के बीच से गुजरते वक्त मुझे कल कुछ गाय दिखाई पड़ी जो बजबजाहट के बीच पेट के मुक्कमल इंतज़ाम में जुटी हुई थी। मुझे थोड़ी पीड़ा हुई, फिर गौ माता के जयकारे लगाने वालों की सूरत का ख्याल आया। मैंने काफी कुछ सोचा फिर तस्वीरें लीं और दफ्तर की ओर बढ़ गया। ये गंदगी ना मोदी ने फैलाई थी, न ही शासन-प्रशासन का कोई नुमाइंदा सड़क पर कचरा छोड़ गया था । अक्सर हम साफ़-सुथरा होने का भ्रम पाल लेते हैं और अपने घर से निकाली गई गंदगी को दूसरे की चौखट पर फेक आते हैं। शहर की सड़कें, चौक-चौराहों से लेकर सरकारी और निजी उपक्रमों में घात लगाकर पहले हम गंदगी करते हैं फिर सरकारी तंत्र की राह ताकते हैं। सोचता हूँ सफाई कर्मी न होते तो शायद हम गंदगी के बीच ही कहीं बदबू मारते पड़े होते। मैं अक्सर उन लोगों के बारे में भी सोचता हूँ जो मोदी के खुले में शौच अभियान के लिए बाटी जाने वाली राशि में भी बंदरबाट करने से नहीं हिचकते। दरअसल सिस्टम की गन्दगी को साफ़ किये बिना स्वच्छ भारत अभियान की परिकल्पना सिर्फ कागजों पर सफल और साफ़ नज़र आएगी। कागज़ पर स्वच्छता बिखेरती भारत की तस्वीर को जब-जब जमीन पर उतरकर देखने की कोशिश कीजियेगा तब-तब चारो ओर सिर्फ और सिर्फ गंदगी ...गंदगी और गंदगी ही दिखाई पड़ेगी।  वजह हम खुद है, सफाई अभियान की जितनी भी तस्वीरें अखबारों या इलेक्ट्रानिक मीडिया के जरिये अब तक सामने आई हैं वो कहीं ना कहीं ये भी बताती हैं हम दोहरा चेहरा लिये आज नहा-धोकर साफ़ कपडे पहनकर सड़क झाड़ने की औपचारिकता के बीच 'मोदी मिशन' को फटका मारने निकले हैं। 
                                             अब ऐसे मे जरा सोचिये जहां सोच वहां.... ?