ॐ शांति... ॐ शांति.. ॐ शांति
" सियासत की बिसात पर एक लाश रखी गई और उसके पैरोकारी की आड़ में सत्ता पर निशाना साधा गया । लाश को पहचानने वाले आज सैकड़ों की तादात में हैं, मगर कल तक वो अकेला था । जिंदगी की तमाम उलझनों से तंग होकर जब उसने अग्नि स्नान किया तो बचाने वाला भी कोई नहीं था । आज उसके परिवार की पैरवी करने वालों की भीड़ सरकारी नौकरी, रुपया और तमाम सरकारी सुविधाएँ मांग रही है । तमाम उम्र गुज़र जाती मगर उसका नाम पहचान को मोहताज़ रह जाता, भला हो मौत का जिसने नाम को मकबूल किया ।"
सच तो ये है कि जितने भी लोग उसकी मौत पर आज स्यापा कर सरकार को कोस रहें हैं वो खुद उसके लाश होने के पहले की पहचान से वाकिफ़ नहीं है । सोचता हूँ उस दिव्यांग के बारे में जिसे मैं खुद नहीं जानता, सिर्फ ख़बर और ख़बरों के लिए होते तमाशे ने मुझे उससे परिचय करवाया है । मैंने उसे कभी देखा भी नहीं फिर भी सोचता हूँ वो कितना कायर रहा होगा जिसने सत्ता की चौखट पर जिंदगी ख़ाक कर दी । अरे । मौत से रिश्तेदारी निभानी ही थी तो सरकार की चौखट ही क्यों भाई ? कहीं और क्यूँ नही । सरकारें मुफ़लिसी दूर नहीं करती उसे शायद ये ख़बर नहीं थी । तुम तो हमेशा के लिए चैन की नींद पा गए मगर कुछ सियासी सुरमा अचानक जाग गए हैं । सिर्फ तुम्हारी लाश का नाम पता है, उसकी आड़ में ताल ठोंककर सियासी चरित्रवलि लिख रहें हैं । कोई सड़क पर लोट रहा है तो कोई बोल बच्चन की आड़ में अपने अपने आकाओं की पैरवी करता दिखाई पड़ रहा है । सियासत की चरित्रहीनता को सबने नंगा देखा है, बात कहने-सुनने की नहीं बस मौक़ा मिलने की है । शायद उनको इससे अच्छा मौका ना मिले ।
राजनीति के खेल में कौन किसको कब किस दांव में पछाड़ दे मालूम नहीं होता । कुछ इसी तरह की धोबी पछाड़ में सूबे के सियासी सुरमा सुर ताल के साथ दाँव देने की जुगत में जनसरोकार के मसलों से दूर होते जा रहें हैं । पिछले दिनों राजधानी रायपुर के सीमावर्ती क्षेत्र बिरगांव में रहने वाले दिव्यांग योगेश साहू ने मुख्यमंत्री निवास के सामने आत्मदाह की कोशिश की । करीब 85 फीसदी जल चुके योगेश को आनन्-फानन में इलाज के लिये अस्पताल भेजा गया जहां तमाम कोशिशों के बावजूद जिंदगी रूठ गई । दरअसल योगेश मुख्यमंत्री निवास में चल रहे जनदर्शन में पहुंचकर अपनी समस्या और मांगों का पुलिंदा डाक्टर रमन सिंह को सौपना चाहता था, वक्त की हेराफेरी में उस दिन उसकी मुलाक़ात मुख्यमंत्री से नहीं हो पाई । लिहाज उसने पेट्रोल छिड़ककर खुद को आग के हवाले कर दिया । योगेश इससे पहले भी चार बार समस्याओं की गठरी बांधे मुख्यमंत्री निवास पहुँच चुका था । समस्या का बोझ शायद पहले की 4 मुलाकातों में कम नहीं हुआ होगा तभी इस बार इतना बड़ा फैसला लिया गया, मगर ये कोई रास्ता नहीं है । समस्या किसे नहीं है ? मैं ये मानता हूँ योगेश ने सिर्फ ना अपनी कायरता का परिचय दिया बल्कि उस जिम्मेवारी से भी मुँह मोड गया जो परिवार के प्रति थी । आर्थिक रूप से कमजोर दिव्यांग योगेश की मुफ़लिसी को मैंने करीब से नहीं देखा है मगर शोर है की परिवार काफी तंगहाल है । तंगहाली का मतलब ये तो नहीं कि हम ख़ुदकुशी कर लें और उन लोगों के जिंदा हो जाने का जरिया बन जाएँ जो कल तक हमारे जैसे लाखों दिव्यांगों को अपनी चौखट पर पैर तक नहीं रखने देते । सरकार के भरोसे बच्चे पैदा करना, उन्हें पढ़ाना, उनकी शादी से लेकर फिर बच्चे पैदा करने की उम्मीद हमें शायद ख़ुदकुशी को मजबूर कर रही है ।
आज हर गरीब को रोटी कपड़ा और मकान की जरूरत है । परिवार के भरण-पोषण से लेकर ईलाज तक का ठेका सरकारों ले । हम सिर्फ खाएंगे, बच्चे पैदा करके देश की जीडीपी ग्रोथ बढ़ाने में बराबर की हिस्सेदारी निभाएंगे । सरकारें मुफ्तखोरी की आदत डाल चुकीं है, वजह सत्ता की कुर्सी । जिनके पास कुर्सी नहीं वो ऐसे दिव्यांग योगेश साहू के आत्मघाती कदम पर रोटी सेकने को बेताब हैं । छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री और छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस के प्रमुख अजीत जोगी ने योगेश के आत्मघाती कदम के लिए सत्ता पक्ष को जिम्मेदार ठहराया है । उन्होंने कल ही छत्तीसगढ़ बंद का आह्वान किया जिसे आंशिक सफलता भी नहीं मिल पाई । अजीत जोगी ने सरकार से दिव्यांग के परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी, 50 लाख की सरकारी मदद के अलावा बहुत कुछ माँगा है । अच्छा है, इन्ही लोगों की नजर में जिसकी जिन्दा होते ना कोई पहचान थी, ना कोई बखत वो मौत के बाद सियासी अखाड़े में काफी कीमती और सामाजिक दिखाई पड़ने लगा ।
सवाल सिर्फ सियासत का है ।
1. आखिर कितने लोग उस दिव्यांग योगेश को सीधे तौर पर जानते हैं ?
2. जिस भीड़ ने योगेश की मौत का मातम मनाया उसमें से कितने लोगों ने उसे जिंदगी की परेशानियों से लड़ना सिखाया ?
3. कितने रुदाली हैं जिन्होंने योगेश की बेबसी, लाचारी पर मदद को हाथ आगे बढ़ाये ?
4. कौन-कौन लोग हैं जिन्होंने उसकी मौत के बाद उसके पतिवार की परेशानियों को कम करने का बीड़ा अपने कंधे पर लिया ?
कई सवाल हैं साहब लिखने को पर लिखकर मुझे अच्छा नहीं लगेगा, आप पढ़ेंगे तो नाहक लाल-पीले होंगे । मुझे तो आपके तेवर की वो शक्लों सूरत भी आज तक याद है जोगी जी जब आप इस प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री बनने के बाद केबिनेट की पहली बैठक लेने अम्बिकापुर पहुंचे थे । आपकी और मेरी तल्ख़ बातों की कुछ यादें हैं जहन में लेकिन यहां जिक्र करके दिव्यांग की मौत पर होते स्यापा में खलल नहीं डालूँगा । मरने वाले की आत्मा को ईश्वर शांति दे मगर उसकी मौत पर सियासत की जुबान से निकलते आरोप-प्रत्यारोप शायद ही उसे चैन की नींद सोने दे । कल ही का पूरा ड्रामा देखे तो छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस के बंद में सिर्फ शक्ति प्रदशर्न की कोशिश रही, मौत के बहाने सरकार को ताकत दिखाने की कोशिश की गई । बंद असफल रहा, कोशिशें नाकाम दिखी । सरकार के प्रधान भी बोलने से बाज नहीं आये उन्होंने कह दिया जोगी का भ्रम इस बार टूट ही गया । उनके साथ कोई भी नहीं, सिर्फ हंगामा मचाने से सत्ता की पेशानी पर बल नहीं पड़ने वाला । वाह .... जिसके लिए तमाशे का आयोजन था उसके विषय को दरकिनार कर सियासतदार अपनी अपनी ताकत का आंकलन करते दिखे ।
मुझे लगता है, हम सब कुछ सिर्फ स्वार्थ के लिए करते हैं । सामाजिक सरोकार भी सिर्फ स्वार्थ के लिए । जनहित के मुद्दे भी अपनी रोटी सेकने की जुगत में । सोचता हूँ हम कितने चेहरे लिए बाज़ार में आम जनमानस की भीड़ में शामिल रहते हैं ? कभी मोमबत्तियाँ जलाते हैं तो कभी चेहरे की ताजगी पे चिंता के भाव दिखाकर लोगों की भावनाओं से खेलते हैं । वो सोचते हैं भीड़ उनके साथ है, मगर भीड़ की शक्ल में सबकी अपनी अपनी भावनायें निहित होती है जो ना दिन के उजाले में नज़र आती हैं ना जलाई गई मोमबत्तियों की रोशनाई में ।
अंत में सिर्फ इतना ही .... भगवन उस दिव्यांग की आत्मा को शांति देना जो इन दिनों राजनीति के चूल्हे पर कुछ लोगों की उम्मीद का पुलाव बना हुआ है ।
ॐ शांति.. ॐ शांति... ॐ शांति.. ॐ शांति !