Saturday 23 April 2016

अफसोस बाघ वोटर नही हैं !

                                           "बाघों को यदि वोट देने की व्यवस्था होती तो हमारे प्रदेश मे उनका नाम बीपीएल कार्ड धारियों की सूची मे होता , उन्हे रियायती दर पर मांस उपलब्ध कराया जाता और खूब शराब पिलाई  जाती अरे हां ! कमजोर आर्थिक  स्थिति  का हवाला देकर किसी बाघिन से सरकारी खर्चे पर विवाह भी करवाया जाता पर अफसोस बाघ वोटर जो नही हैं ।"
         अफ़सोस छत्तीसगढ़ में सब सामान्य होता तो कवि  यूँ  कटाक्ष ना करता । कवि अजय पाठक ही क्यूँ और भी लोग हैं जो सामाजिक, राजनैतिक और बौद्धिक क्षेत्र में अपनी अलग पहचान रखते हैं वो भी शासन के निक्कमेपन पर तंज कसते हैं । रामप्रताप सिंह कहते हैं "इस संबंध मे वर्तमान शासन और शासक दोनो ही इस ओर ध्यान नही दे रहे ... कागजो मे जंगली कुत्तों को भी शेर बता सकते है। बाघ हमारे देश व पर्यावरण की शान हैं इनको बचाया जाना अत्यावश्यक है।" सुनील कुमार जी कहते हैं "सरकारी लापरवाही हर क्षेत्र में जगजाहिर है पर लुत्पप्राय वन्यजीवों के साथ खिलवाड़ अक्षम्य है , पर सुने कौन ?"
बिल्कुल, यहाँ कोई सुनने वाला नहीं है । सब जानते हैं शासन बहरा है, प्रशासन की मर्ज़ी के आगे किसी की चलती नहीं, तभी तो अचानकमार अभ्यारण्य से टाईगर रिजर्व बनने तक के सफ़र में बाघ बढ़ते चले गए । दरअसल ये कॉमेंट्स सोशल मिडिया पर मेरी उस पोस्ट में है जिसमें बाघ और उनके संरक्षण का जिक्र है। अचानकमार अभ्यारण्य में साल 2000 से 2005 में बाघों की संख्या 15 से 17 थी  । साल 2009 तक बाघ बढ़कर 26 हो गए, वर्तमान में 28 बाघ है । ये बाघ वन महकमें की फाइलों में देखे जा सकते हैं, जंगल में इनको खोज पाना उतना ही कठिन है जितना आसमान से तारे तोड़ लाना । सरकारी दस्तावेजों में बढ़ते बाघों की गुर्राहट जमीनी अमले से लेकर राजधानी में बैठे जंगली अधिकारी और मंत्री को सुनाई देती है, मगर पर्यटक या फिर उस इलाके से गुजरने वाले राहगीरों को आज तक बाघ की लीद के दीदार नही हुए ! साक्षात बाघ तो दूर की कौड़ी है । साल 2009 में अचानकमार अभ्यारण्य को टाईगर रिजर्व का दर्जा मिला । इसके लिए वन महकमें के एक नामचीन अफ़सर ने दिन का चैन, रातों की नींद हराम कर दी । जानकार बताते हैं उस अफ़सर ने दिल्ली से आई टीम को घुमाघुमाकर बाघ दिखाए, जमकर खातिरदारी की ! नतीजा अभ्यारण्य, टाईगर रिजर्व बन गया । अफ़सोस वो अफसर अभी भ्रष्टाचार के मामले में सरकारी तंत्र के हत्थे चढ़ा । खैर सवाल बाघ और उनके संरक्षण का है ।
       पिछले दिनों पडोसी राज्य मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने वहां बाघों की मौत पर चिंता जताते हुए वन महकमें को कड़ी फटकार लगाई और बाघों के संरक्षण की बात कही । अखबार से लेकर दृश्य मिडिया में मध्यप्रदेश के पर्यटन को लेकर दिखाई पड़ता उत्साह बताता है, सरकार टूरिज्म को लेकर बेहद गंभीर है । हम उसी मध्यप्रदेश से अलग होकर अपनी पृथक पहचान बनाने के दम्भ भरते हैं । शिक्षा, स्वास्थ्य, उद्योग के क्षेत्र में जाने क्या क्या दावे । सूबे के सरदार डाक्टर हैं मगर राज्य जमीनी तौर पर काफी बीमार है । सरकार नहीं मानती, माने भी क्यूँ ? छत्तीसगढ़ को पर्यटन के क्षेत्र में काफी पहचान दिलाई जा सकती है, मगर कोई सकारात्मक पहल नज़र नही आती । प्रदेश का इकलौता टाईगर रिजर्व, अचानकमार जहां आज भी बाघों के वास्तविक आंकड़ों पर बड़ी बहस हो सकती है । जंगल विभाग नें रिजर्व फारेस्ट में ट्रैप कैमरे भी लगा रखें हैं, उन कैमरों में आज तक कितने बाघ कैद हुए ? ये सवाल भी पूछना गुनाह है हुजूर ।
वन्य प्राणियों को लेकर प्रदेश में सरकार और विभागीय अमले की उदासीनता की जितनी तारीफ़ की जाये कम है । पिछले 2 साल में मौत के आंकड़ों पर नज़र डालें तो मालूम पड़ेगा सरकार वन्य प्राणियों के संरक्षण को लेकर कितनी गंभीर है । कानन मिनी जू में सत्तापक्ष के एक विधायक की बर्थडे पार्टी के बाद अचानक 22 चीतलों की मौत । हाल ही में बारनवापारा में जहरीला पानी पीने से दर्जनों वन्यजीवों की अकाल मौत । दिसंबर में सिंहावल सागर (अचानकमार टाईगर रिजर्व क्षेत्र) में हथिनी पूर्णिमा की मौत। ग्राम बिन्दावल में जंजीरों से जकड कर रखे गए हाथी पर जुल्म के किस्से किसी से छिपे नहीं हैं। हाईकोर्ट में याचिका लगने के बाद जंगली अधिकारी होश में आये और सोनू नाम के हाथी की जान बचाई जा सकी । कई और मामले जिसमें वन्य प्राणियों की मौत जो आज तक जांच का हिस्सा है । जांच करने और करवाने वाले महकमें के ही लोग हैं । अफ़सोस इन सभी मामलों और मौत पर सरकार का रवैय्या सकारात्मक नहीं रहा । मूक वन्य प्राणियों की अकाल मौत की आंच किसी अफ़सर पर नहीं आई । ठीक उसी तरह बाघों की दस्तावेजों में बढ़ती संख्या पर सूबे के मुख्यमंत्री को कभी ख़ुशी नहीं हुई, यक़ीनन वे हकीकत से वाकिफ़ होंगे । मुझे याद नहीं पड़ता पिछले 13 साल के शासनकाल में प्रदेश का डॉक्टर कभी अचानकमार टाईगर रिजर्व में बाघ देखने गया हो, हाँ उनकी इस अनदेखी को अन्य वीवीआईपी ने जरूर पूरा किया । कहते हैं कुछ वीवीआईपी को बाघ दिखा मगर वो 'मनरेगा' का निकला ...और ये इस प्रदेश की उपलब्धि है जहां वीवीआईपी के लिए मनरेगा के बाघ उपलब्ध हैं ।
आप सोच रहें होंगे ये 'मनरेगा' बाघ क्या है, जानना है तो एक बार किसी वीवीआईपी के साथ अचानकमार टाईगर रिजर्व आइये ! 

Wednesday 20 April 2016

'लोकतंत्र' खतरे में है

                                                     
       
                                                                  'न कोई प्रजा है
                                                                        न कोई तंत्र है
                                                                 यह आदमी के खिलाफ़
                                                                    आदमी का खुला सा
                                                                   षड़यन्त्र है ।  [धूमिल]
                                      प्रख्यात कवि सुदामा प्रसाद पांडेय 'धूमिल' की इन पंक्तियों को पढ़कर अपने सूबे के हालात पर जब सोचने बैठता हूँ तो लगता है 'धूमिल' कितने दिव्यदर्शी थे। लोकतंत्र की लाचारी, उसके बदन को नोचने वालों की मक्कारी पर 'सुदामा' दशकों पहले लिख गए ये आज कह रहें हैं ... 'लोकतंत्र' खतरे में है। 'लोकतंत्र' की चिंता को माथे की मक्कार लकीरों  में शामिल कर गाल बजाने वाले दिन ढलते ही 'लोक-तंत्र' की बेबसी पर खूब ठहाके लगाते हैं। देश के 'लोकतंत्र' पर ख़तरा मंडरा रहा है। विपक्ष [कांग्रेस] की माने तो अब वक्त आ गया है 'लोकतंत्र' की सुरक्षा का। 'लोकतंत्र' को खतरा सरकार से है या विपक्ष [कांग्रेस] ने खतरनाक मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है चिन्तन का विषय है। जरूरत है सत्ता और विपक्ष पहले लोकतंत्र की परिभाषा समझे, केवल सियासी आंच पर रोटी सेकना और वोट बटोरना ही लोकतंत्र नहीं है।  देश के अन्य राज्यों को छोड़ मैं अपने प्रदेश के लोकतंत्र की सूरत को गौर से जब निहारता हूँ तो लगता हैं जैसे उसे अपने चेहरे से घिन्न आ रही हो। मेरे सूबे में सब ठीक-ठाक हो ऐसा नहीं है, फिर भी विपक्ष मौन रहा ! अब अचानक देश भर में लोकतंत्र को बचाने का ख्याल विपक्ष [कांग्रेस] की माताश्री को आया। उनके फरमान के बाद सूबे में विपक्ष जागृत होने का अभिनय करता दिखा। सरकार पर आरोपों के शब्दभेदी बाण चलाये गए, सरकार का सीना कितना छलनी हुआ ? जवाब परेशान लोकतंत्र को टटोलने पर मिल जाएगा। पिछले 13 साल से विपक्ष की कुर्सी पर बैठने का दंश झेल रही कांग्रेस अपने गिरेबां को झांकना ही भूल गई  । राज्य में अराजकता की जड़ें गहराई तक पैठ बना चुकी हैं। ह्त्या,लूट,बलात्कार जैसे संगीन अपराध बढ़ते चले गए। घोटालों पर घोटाले, बेलगाम नौकरशाह।  लाल आतंक के अनगिनत क्रूरतम कारनामें। अकाल से जूझते किसानों की घुटन भरी जिंदगी ... ये सब कुछ तो है पर सरकार नहीं मानती। वो सत्ता मिलने की तारीख से राज्य को 'विश्वसनीयता' की चादर से ढांककर रखे हुए है। सरकार का दावा है देश में जो 68 साल की आजादी के बाद नहीं हुआ वो अब हो रहा है। खासकर छत्तीसगढ़ जैसा गरीब और बीमारू राज्य जहां करोड़ों रुपये की आय सिर्फ शराब बेचकर सरकार कमाती है। विकास की बहती गंगा में सत्तासीन और नौकरशाहों के चेहरें 16 साल में ही लाल हो गए। ईमानदारी के मुखौटों से ढके चेहरों ने विकास की लक्ष्मी को चोर जेब के जरिये सुरक्षित ठिकानों तक पहुंचा दिया। कइयों चेहरें राजनीति की बिसात पर पिटे भी। काली कमाई के करोड़ों रुपये सरकारी खजानों तक पहुंचे ऐसे में सत्ता और विपक्ष के माथे पर चिंता की लकीरों का ना नज़र आना 'लोकतंत्र' का मजाक ही तो है। 
         आज लोकतंत्र को बचाने का ख्याल विपक्ष को सिर्फ इसलिए आया क्यूंकि मैडम सोनिया जी को सपनें में 'कुर्सी' देव प्रगट होकर बोले सत्ता पाने के लिए कुछ न कुछ करते रहिये वर्ना विपक्ष की कुर्सी भी खिसकने में देर नहीं लगेगी।  देश के अन्य राज्यों का नहीं पता मगर छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के फटे ढोल को बजाने की कसरत सत्ता पक्ष के लिए राहत देने वाली है। पिछले 13 साल में विपक्ष की भूमिका का पता खोजने निकलें तो मालूम पडेगा सियासत की देहरी में वो गूंगे की तरह बैठी है। जब-जब सरकार को जनहित के मुद्दे पर घेरने का मौक़ा मिला तब-तब औपचारिक शोर-शराबे के बाद ख़ामोशी नज़र आई। यहां झीरम घाटी में नरसंहार हुआ, आये दिन सुरक्षा में तैनात जवानों के खून से होली खेली जाती है तब लोकतंत्र की सुरक्षा का ख्याल कहाँ था ?  विपक्ष को टेप काण्ड जैसा बड़ा मुद्दा हाल ही में हाथ लगा लेकिन सरकार और उनके दामाद को घेरना छोड़ विपक्ष आपस में भिड़ गया। आपसी कटुता ने अंदरूनी लड़ाई को सड़क पर ला खड़ा किया। अब विपक्ष सत्ता के खिलाफ कम व्यक्ति विशेष में बटे अपनों के खिलाफ ही बयानबाजी करता है। ये कई धड़ों में बटे हैं। जोगी खेमा संगठन को ताक पर रखता है, संगठन और विपक्ष के दूसरे खेमें की नूरा-कुश्ती जोगी परिवार से चल रही है। यकीन मानिए सरकार की परेशानियों को कांग्रेसियों ने अपने अलग-अलग गुटों में बाँट लिया है ऐसे में 'लोकतंत्र' की सुरक्षा का शोर महज बेमानी लगता है। सरकार के साथ साथ लोकतंत्र की सुरक्षा और उसके हालात पर विपक्ष को भी चिंता करनी होती है मगर बुरे दिनों में भी विपक्ष केवल अपनी जड़ों को खोदने में लगा है। 
        प्रदेश में लोकतंत्र एक ऐसे मकड़जाल की तरह है जिसके केंद्र बिंदु में एक बड़ी सी मकड़ी [सफेदपोश] बैठकर जनता रूपी कीड़े फांकती है और उसका खून चूसकर उसके मुर्दा शरीर को हवा में उड़ा देती है। ये मकड़ी पक्ष की हो या विपक्ष की दोनों का धर्म समान ही है। ऐसे में मशहूर कवि 'अजय पाठक' की ये चन्द लाइने आज के परिपेक्ष्य में याद आती हैं ।  कवि कहता है 
                                                 '' लोकतंत्र का कीड़ा उलझा है,
                                                                 मकड़ी के जाल में
                                                     दौड़ लगाती चलीं मकड़ियां 
                                                              अपना हिस्सा पाने 
                                                      अंदर विष है, और होंठ पर 
                                                          जन-गण-मन के गाने 
                                                       तरह-तरह के जाले बुनती
                                                             दिल्ली में भोपाल में
                                                     लोकतंत्र का कीड़ा उलझा है,
                                                               मकड़ी के जाल में ''    
                                       यक़ीनन ये सच मेरे सूबे के लोकतंत्र का हिस्सा है।  जहां दिन में लोकतंत्र की ह्त्या पर मातम मनाया जाता है और रात होते ही कोई उसे नोचता है, कोई उसके साथ खेलता है तो कोई उसके साथ रात गुजारता है।      

Monday 11 April 2016

जूता, कभी चलता है कभी पूजा जाता है

                                                               
                                                                                     
गत दिनों मुझे एक जोड़ी जूते खरीदने थे। सो जूतों के बारे में सोचता रहा। दो दिन बाद मैं बहुत चौंका कि चिंतन में लगातार जूता ही चल रहा है यानि कि जूता दिमाग में भी चलने लगा। अब तक तो यही सुना था कि जूता लोगों के बीच में चलता है। अब दिमाग में जूता घुसा तो ऐसा घुसा कि जूते के विषय में नये-नये तथ्य सामने आने लगे। यों तथ्यों को नये कहना भी गलत होगा। हैं तो वो बहुत पुराने बहुत आम, पर अब तक दिमाग में नहीं आए। दूकानदार ने तो दार्शनिक मुद्रा में सत्य उद्घाटित किया कि 'जूतों से आदमी की पहचान होती है, आदमी की सबसे पहली नज़र जूतों पर ही पड़ती है। जूतों से आदमी का स्तर नापा जा सकता है। यानि कि जूते स्टैंडर्ड की पहचान होते हैं। अब यह तथ्य बड़ी-बड़ी कंपनियाँ भी जान गयी हैं इसलिए अब बहुत बड़ी-बड़ी अंतर्राष्ट्रीय कंपनियाँ जूते के मार्केट में उतर आयी हैं। अब जूता कैसा है इससे मतलब नहीं है जूता किस कंपनी का है यह महत्त्वपूर्ण है। आपके जूते किस ब्रांड के हैं यह पता चलते ही यह पता पड़ जाएगा कि आप उद्योगपति हैं, बड़े व्यापारी हैं, बड़े अपफसर हैं मध्मम दर्जे के आदमी हैं, क्लर्क हैं या चपरासी हैं। जूतों को देखकर आप आसानी से पता कर सकते हैं कि अमुक आदमी का आर्थिक स्तर लगभग ऐसा है यानि कि जूता आदमी का मेजरमेंट है।` 
          यदि आपकी नज़र में कोई ऐसा जूता आए जिसके तलवे घिसे पिटे हैं फटीचर हैं और किसी जवान लड़के के पैर में हैं तो आप समझ जाएँगे कि बेचारा बेरोजगार है गरीबी का मारा है और ऐसे जूते किसी प्रौढ़ व्यक्ति के पैर में हों तो आप तत्काल समझ जाएँगे कि बेचारा परिस्थिति का मारा है आदि-आदि यानि कि जूते आपकी सच्ची कहानी आसानी से बयाँ कर देते हैं। इसलिए कुछ चालाक लोग अपने हालात छुपाने के लिए यानि कि अपनी इज्जत बचाने के लिए बढ़िया कंपनी का महँगा जूता पहनते हैं चाहे इसके लिए उनको कितने ही जूते चटखाने पड़ें। कहने का मतलब आदमी की इज्जत का रखवाला जूता ही होता है यदि एकदम यथार्थ में देखें तो यह बात सोलह आना सही है कि यदि जूता पैरों में पड़ा हो तो इज्जत बढ़ाता है। और यही अगर सर पर पहुँच जाए तो वर्षों की इज्जत पल भर में मिट्टी में मिल जाए। यदि कोई गलत-शलत तरीके से धनाढ्य होकर अहंकारी हो जाता है तो ऐसे लोगों के लिए ही एक मुहावरा प्रचलित है कि 'पैरों की जूती सर पर पहुँचने लगी है।'  जूता ही आदमी की इज्जत घटा सकता है जूता ही आदमी की इज्जत बढ़ा सकता है। आप कितना ही बेशकीमती सूट पहन लें और कीमती टाई लगा लें। रेबैन का चश्मा पहन लें और बिना जूते के नंगे पैर सड़क पर निकल आएँ तो लोग आपको पागल समझने लगेंगे । यदि जूते आपने हाथ में ले लिए और चलाने लगे किसी पर तो पल भर में ही आप संभ्रांत से बदतमीज आदमी कहे जाने लगेंगे। मतलब कि जूता पहनने के साथ खाने के काम भी आता है,जूता पहनने से इज्जत बढ़ती है और जूता खाने से इज्जत घटती है। 
        यदि सही अर्थों में देखा जाए तो जूते का सर्वाधिक महत्त्व है। व्यक्तिगत जीवन में भी, समाज में भी, राजनीति में भी। यानि कि जीवन के हर क्षेत्र में जूतों का सर्वाधिक महत्त्व है। इसका चलन बहुआयामी है। यह निर्बाध रूप से गली-मुहल्ले, सड़कों से लेकर विधान सभा और संसद तक में चलता है। जब कोई मंत्री कोई बड़ा घोटाला अपनी 'जूतों' की नोक पर कर लेता है तब संसद में महीनों 'जूता' चलता है। यानि कि देश की सभी समस्याएँ दर किनार बस जूता ही प्रमुख। इसको इस तरह से भी देखा जा सकता है। जिसका जूता पुजता है वही नेता पुजता है। आप बड़े राष्ट्रीय चरित्रवान नेता हैं तो बने रहिए। यदि आपका जूता नहीं पुज रहा है तो कोई आपको दो टके में भी नहीं पूछेगा। और अगर आपका जूता पुज रहा है तो आप कोई भी हों, डकैत हों, कत्ली हों, अपराधी हों, बलात्कारी हों, महाभ्रष्ट हों, लोग आपको नेताजी, राजा साहब, कुंवर साहब आदि-आदि संबोधानों से संबोधित करेंगे। राजनीतिक पार्टियों में भी यही हाल है जिस नेता का जूता पुज रहा है पूरी पार्टी उसकी ही। राजनीति में केवल वही सफल हो सकता है जो या तो जूता-पुजवाता रहे या जूता पूजता रहे। 
              जूता पुजवाने या पूजने की परंपरा कोई नयी नहीं है। यह परंपरा इस देश में सदियों से चली आ रही है। राजा रजवाड़ों के जमाने में, राजा, महाराजाओं, नवाबों, सूबेदारों, हाकिम हुक्कामों और शहर कोतवाल का जूता पुजता था। अंग्रेजों के जमाने में अंग्रेजों का जूता पुजता था और कुछ लोग उनका जूता पूज पूज कर, राय साहब राय बहादुर बनकर अपना जूता पुजवाते थे।  आज बड़े-बड़े नेताओं, बड़े-बड़े अपराधियों, अधिकारियों और शहर कोतवाल का जूता पुजता है। सही मायनें में जूता कितना खुशनसीब है, कभी चलता है कभी पूजा जाता है। 
                                     आप क्या करते हैं ? जूता पूजते हैं या चलाते हैं।  

Friday 8 April 2016

डर पैदा हुआ, जागरूकता नहीं।

                                 

  'हेलमेट'... जिंदगी के लिए जरूरी है। जान तभी बचेगी जब साथ में हेलमेट होगा। दरोगा से लेकर सिपाही तक इन दिनों हेलमेट पहनाने में जुटा हुआ हैं। आम जनता के जान की फिक्र में दुबली हुई जा रही पुलिस ने चौक-चौराहों के साथ-साथ बच निकलने वाले रास्तों में भी घेराबंदी शुरू कर दी है। कहाँ से कोई बचे। हर हाथ में काम हो ना हो हेलमेट जरूर होता है। पेट्रोल ना मिलने के डर ने बाज़ार में हेलमेट उद्योग और व्यापारियों में नई जान फूंक दी है। अब लोग अपनी जान से ज्यादा पेट्रोल ना मिलने के भय में हेलमेट साथ लेकर चल रहें हैं। हेलमेट साथ नहीं हुआ तो सिपाही आपकी जान नहीं बख्शेगा और पेट्रोल नहीं मिला तो आपके वाहन की जान दम तोड़ देगी। इन तमाम तमाशे में सफर आम इंसान कर रहा है। सड़क पर हेलमेट लगाकर वाहन चलाने वालों की तुलना में हेलमेट साथ लेकर चलने वाले ज्यादा हैं।  
                   सवाल अपनी जिंदगी का है, इस बात का ज्ञान जिसे भी है वो भली-भाँति हेलमेट का इस्तेमाल कर रहा है लेकिन उन लोगों का क्या जिनके लिए हेलमेट मुसीबत से ज्यादा कुछ नहीं ? पुलिस चालान पर चालान काट रही है। उसे इस बात से कोई सरोकार नहीं की उसकी इस घेराबंदी से केवल डर पैदा हुआ है, जागरूकता नहीं। आज शहर और उससे लगे इलाकों में सड़क के किनारे सजी हेलमेट की दुकानों पर किस क्वालिटी का हेलमेट बिक रहा ये कोई पूछने वाला नहीं। सिर्फ आपकी खोपड़ी के ऊपर एक और खोपड़ी लगी होनी चाहिए। उस गुणवत्ताविहीन हेलमेट से आपकी सुरक्षा होगी तय नहीं लेकिन उसके साथ रहने से पेट्रोल मिलेगा और खाकी वालों की तिरछी नज़र से बचाव होगा। 
                           अक्सर हादसों की वजह जब भी सामने आती है नशा मुख्य कारण होता है। हेलमेट पहनाने और पहनने वाले भी समझते हैं। असावधानी और नशा आपको हेलमेट साथ होने पर भी आपकी जान बचा दे जरूरी नहीं। चूँकि सरकारी फरमान है और बात ऊपर से लेकर नीचे तक फायदे की है इस कारण आपको, हम सबको हेलमेट पहनाया जा रहा है। जिस शहर में यातायात की व्यवस्था और उसके सुचारु चलन के इंतजाम आज तक नहीं किये जा सके वहां इन दिनों सिर्फ हेलमेट की आड़ में पहले घेराबंदी फिर ....! बेतरतीब यातायात, ओवरलोड ऑटो, सिमित गति से तेज भागते भारी वाहन पुलिस को परेशान नहीं करते। पुलिस सिर्फ हेलमेट के पीछे पड़ी है। नियमों की धज्जियां उसकी आँखों के सामने हर चौक-चौराहे पर उड़ रहीं लेकिन हाथ में डंडा और रसीद बुक लिए साहब की नज़र बिन हेलमेट वाली खोपड़ी पर होती है। आज के हालात बताते हैं 'बिन हेलमेट सब सूंन' !

Thursday 7 April 2016

...दरख़्तों में छाँव होती है !




"ये सोचकर कि दरख़्तों में छाँव होती है,
यहां बबूल के साये में आके बैठ गए। "

                                     अफ़सोस यहां ना दरख़्त बचे, न छाँव नजर आती है। कल तक सब के सब कतार में खड़े अपनी जवानी पर इठला रहे थे। अब केवल ठूंठ दिखाई पड़ते हैं। ये ठूंठ भी कुछ घंटों या फिर चन्द दिनों के मेहमान हैं। जिन्होंने दरख्तों का बड़ी बेरहमी से कत्लेआम किया वो इनके नामों- निशाँ तक मिटा देंगे। उन्हें विकास के पथ पर ऐसे कोई अवरोध नहीं चाहिए जो राहगीर को राहत देते हों, पर्यावरण का संतुलन बनाते हों । दरख़्त, जिनका पता अब खोजे नहीं मिलेगा। छाँव तलाशते-तलाशते आँखें थक जाएँगी, बेचैन और थका राहगीर इस राह पर सिर्फ बढ़ता चला जाएगा क्यूंकि इलाकें में जिस हरियाली का खुलेआम क़त्ल हुआ है वो अब फैलने [चौड़ीकरण] वाली है। विकास की किताब में एक और इबारत लिखी जाएगी जिसका कुछ ना कुछ नाम होगा। नहीं होगा तो बस इन दरख्तों का जिक्र, होना भी नहीं चाहिए। आखिर विकास किसे पसंद नहीं है ?
                               बिलासपुर के विकास और उसकी तरक्की के कई अध्याय मैंने ध्यान से पढ़े है। अगर इम्तहान हों तो शायद पास भी हो जाऊं। ऊँची-ऊँची इमारते, कई ओवरब्रिज। सकरी सड़कों का चौड़ा होना फिर सकरा होना। डिवाइडरों के आये दिन बदलते डिजाइन और उन पर चढ़े आर्टिफिशियल पेड़ शाम होते ही विकास की चकाचौंध को आँखों तक पहुंचाते हैं। मैंने अपने घर से लगे गौरव पथ का 'गौरव' भी निहारा है।  पुराने पन्नों की गर्द ना भी हटाऊँ तो पिछले १५ साल से लिखी जा रही विकास गाथा आम जनमानस के दर्द को कुरेदती तो है मगर लोकतान्त्रिक व्यवस्था में चेहरे बदतले हैं, नियत नहीं। ऊपर जिन तस्वीरों को मैंने सजा रखा है वो होने वाले विकास के पहले का सबूत मात्र हैं। अब जब भी कोटा से रतनपुर की ओर बढूंगा सिर्फ और सिर्फ राह की शक्ल में फलता-फूलता विकास नज़र आएगा। सोचता हूँ तो कोफ़्त होती है, मगर क्या करूँ। मेरे शहर में सैकड़ों ऐसे चेहरे हैं जो अक्सर पर्यावरण की वकालत करते हैं। साल में कुछ ऐसे भी अवसर आते हैं जब पर्यावरण के रहनुमाओं के गले से धरती को हरा-भरा रखने का शोर फिजां  में ध्वनि प्रदुषण फैलाता है। विकास की आड़ में जिस रफ़्तार से पेड़ों की बलि ली जा रही है वो भविष्य के लिए किसी त्रासदी से कम नहीं होगी। मुझे सियासत और सियासी चेहरों के अलावा नौकरशाहों से कोई शिकायत नहीं, होनी भी नहीं चाहिए । जब हम ही ज़िंदा होने के सबूत नहीं दे रहे तो ये दरख्त कभी विकास की आड़ में तो कभी किसी और कारण से कटते रहेंगे।
                                   हर बरस बारिश में हमको इंतज़ार होता है अरपा की गोद भराई का। मगर सालों बीत गए, प्यासी अरपा का आँचल सूना है। जिम्मेवार कौन है ? वो लोग जो रेत से तेल निकालते-निकालते आज तलक नहीं थके ? या वो लोग जो अक्सर अरपा को बचाने का शोर मचाते हैं ? शायद हमारी खामोशियाँ भी उतनी ही जिम्मेवार हैं। सब कुछ विकास के लिए या विकास की आड़ में हो रहा है। फर्क उन खिदमतगारों को नहीं पड़ने वाला जो आपके, मेरे और हम सबके नाम पर अपनी अगली पौध के बेहतर इंतज़ाम के इंतजामात कर चुके हैं। हम विकास के नाम पर कहाँ धकियाए जा रहें हैं ?  ठन्डे दिमाग से सोचेंगें तो यक़ीनन सामने सिर्फ सीवरेज का गढ्ढा दिखाई पडेगा। मैं घुमक्कड़ हूँ, जंगल और जंगली जानवरों की फोटोग्राफी के लिए यहां-वहां घूमता रहता हूँ। इस घुमाई में अब मुझे शहर से गाँव तक सिर्फ अकल्पनीय विकास नज़र आता है ..... और कुछ नहीं।