Tuesday 31 May 2016

मैं 'विद्या' हूँ !

                                       'उसके साथ त्याग, समर्पण के साथ विश्वास की बड़ी पूंजी है जो उसे सबसे अलग बनाती है । उसके हौसले और दृढ इक्षाशक्ति में समाज के नजरिये को बदलने का जज्बा दिखाई देता है । वो ईश्वर की अनमोल रचना है । उसमें पुरुषों सा बल है तो नारी के रूप में ममता का अथाह सागर जिसकी अनंत गहराई में सिर्फ और सिर्फ.. प्यार है ।'
         'विद्या' ... ये एक नाम नही बल्कि उस शख्सियत की पहचान है जिसने समाज में मुकम्मल जगह पाने के लिए दशकों तक संघर्ष किया । ये संघर्ष सिर्फ अकेले के लिए नही बल्कि पूरी बिरादरी के लिए है । कठिन रास्तों पर चलते-चलते पाँव के छाले फूटकर कठोर हो गए लेकिन समाज के नजरिये में अब तक  बदलाव की कोई धुंधली सी तस्वीर भी सामने नही आई । अफ़सोस होता है, मगर 'विद्या' ने हारना नही सीखा इसलिए उसे खास फर्क नही पड़ता । वो आख़री सांस तक अपनी बिरादरी को अधिकार दिलाने लड़ती रहेगी, मगर कुछ समय अब 'विद्या' अपने लिए जीना चाहती है । उस परिवार की खुशियों का हिस्सा बनना चाहती है जहां उसे बेटी, बहू की तरह स्नेह मिले । ममता के आँचल में कुछ देर अपना सर रखकर वो प्यार की उस गहराई को महसूस करना चाहती है जिससे शायद वो महरूम है ।
'विद्या' से आज मेरी पहली मुलाकात थी । मुलाकात भी अनौपचारिक, वो दफ्तर में मेरी सहयोगी सोनम से मुलाक़ात करने पहुँची थी । चूँकि सामने था इस वजह से सहयोगी ने विद्या से मेरा परिचय कराया । दुआ-सलाम के बाद मेरे सहयोगी और विद्या के बीच बातों का सिलसिला शुरू हुआ जो करीब-करीब 40 मिनट तक जारी रहा । मैं सामने मूक श्रोता बना विद्या की बातों को गंभीरता से सुनता रहा, उसके चेहरे की भाव-भंगिमा को पढने की कोशिश की । जहाँ जरूरत महसूस होती वहाँ अपनी गर्दन हिलाकर उसकी बातों में सहमति देता ।
इस चर्चा में संघर्ष के दौर का जिक्र था, पूरी बिरादरी के हक़ की हकीक़त के बाद स्वयं के प्यार की दास्ताँ पर सिलसिलेवार बात होती रही । बातों का दौर शायद ख़त्म ना होता गर समय की पाबंदी विद्या के साथ नहीं होती, उसे शायद घर लौटना था । जिस तरह परिचय के दौरान मैने खड़े होकर करबद्ध उसका अभिवादन किया ठीक उसी तरह उसके लौटने पर हाथ जोड़े मैं पुनः कुर्सी छोड़कर खड़ा था । मगर इस बार के अभिवादन में विद्या के लिए मेरे मन में ज्यादा मान-सम्मान था । उसकी बातें, त्याग और समर्पण के साथ उसका समाज को लेकर सकारात्मक नजरिया मुझे भीतर तक झंकझोर चूका था । 'विद्या' की बातें कई सवाल छोड़ गईं, कुछ अनकही दास्ताँ जिनके ऊपर की गर्द को हटायें तो ना जाने कितने जख़्म, कितनी जिल्लतें और ना जाने दर्द से कराहती कितनी ही आवाजों का शोर सुनाई देता है ।
विद्या ट्रांसजेंडर कम्युनिटी का प्रतिनिधित्व करती है । प्रारंभिक शिक्षा कोंडागांव जिले के फरसगांव से हुई । इसके बाद विद्या ने पंडित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय से हिंदी में मास्टर डिग्री ली । इतना ही नही उन्होंने सोशल वर्क के लिए भी कई डिग्री हासिल की । मैनेजमेंट में डिप्लोमा किया है । वे कई संस्थाओं से जुडी हैं जो ट्रांस या फिर थर्ड जेंडर के लिए काम कर रहीं हैं। शिक्षा से विद्या का लगाव उसे इस लायक बनाता चला गया कि आज वो किसी भी मुद्दे पर बे-बाक बोलने को तैयार रहती है । उसका शिक्षित होना ही उसे अधिकारों के प्रति जागरूक करता रहा साथ ही अपने अधिकार के लिए संगठित होकर लड़ना सीखा गया । समाज की मुख्य धारा से जुड़ने के लिए विद्या और उसकी कम्युनिटी से जुड़े सदस्यों ने लंबे समय तक संघर्ष किया, आज भी कई मांगों को लेकर संघर्ष जारी है । सरकारी नौकरी में 2 प्रतिशत आरक्षण से लेकर समाज में उचित मान-सम्मान पाने के लिए ट्रांसजेंडर कम्युनिटी ने कई बार सरकार के दरवाजे पर दस्तक भी दी । विद्या का मानना है सामाजिक नज़रिया बदलने से बहुत सारी कठिनाइयाँ ख़त्म हो जाएँगी । आज हालात ये हैं कि ट्रांसजेंडर को उन्ही का परिवार उपेक्षा का दंश भोगने के लिए अकेला छोड़ देता है । यौन हिंसा की घटनाएं आम हैं लेकिन कब तक ? सवाल बड़ा है, जवाब भी हमें ही मिलकर ढूढ़ना होगा ।
       'विद्या' की बातों से मुझे उसके जीवन के दूसरे और सबसे अहम् पहलू से मुलाक़ात करने का मौक़ा मिला । उसकी बातों में जिंदगी को जी भर जी लेने की लालसा भी दिखाई पड़ी । उसे किसी से बेइन्तहां मोहब्बत भी है । बातों से खुलासा हुआ, उसकी आशिकी में दीवानी 'विद्या' अब घर बसाना चाहती है । प्यार को पति और सास-ससुर को माँ-बाबा के रूप में देखने की ख्वाहिश है । उसे मालूम है समाज क्या सोचेगा, क्या कहेगा ? अपने घर की देहरी से उपेक्षित हो चुकी विद्या जानती है ख्वाहिशों की कोई सीमा नही मगर दायरा जरूरी है । अपनी खुशियों के लिए किसी दूसरे की ख़ुशी में ग्रहण नही लगाना चाहती । उसकी बातों में त्याग, सेवा, समर्पण के अलावा विश्वास झलकता है । उसे मालूम है अगर घर बस भी गया तो बच्चे नही हो सकते, मगर हौसला देखिये । विद्या कहती है क्या हुआ जो हम कोख से बच्चा नही जन्म दे सकते , अरे सौ बच्चों को पालने का कलेजा है । वो खुद को ईश्वर तो नही मानती मगर उसकी बनाई हुई सर्वश्रेष्ठ रचना मानकर समाज में अपनी अनगिनत भूमिका पे खरा उतरना चाहती है । विद्या राजपूत.. ये पूरा नाम है । अतीत से खास वास्ता नही इस कारण पुराने नाम को जानकर भला मैं भी क्या करता । अब मैं भी तुमको 'विद्या' के नाम जानता हूँ, जानता रहूँगा ।
                            जिंदगी की पटकथा में अपने हर किरदार पर खरा उतरने की कोशिश में जुटी विद्या कुछ पल रुककर अब अपने लिए जीना चाहती है । जी रही है, खुश भी है मगर दिल में एक कसक है । अपनों के बिछड़ने  की निराशा, नए हमसफर के मिल जाने की ख़ुशी फिर भी कई सवाल... !  

Sunday 22 May 2016

...मैं जिन्दा हूँ ।

           
                  "कल मौत को अपने पीछे लपकते देखा । मैं जिंदगी के लिए भागता रहा और मौत पीछा करते करते अचानक रास्ते में रुक गई । उखड़ती साँसों को संभाले मैंने मुड़कर जब पीछे देखा तो मौत अपना रास्ता बदल चुकी थी । शायद मैं ही गलत था, बिना बुलाये उसके दरवाजे पर दस्तक दे रहा था ।"
उसने मुझे हुंकारकर वापस लौट जाने की चेतावनी भी दी मगर मैं चंद तस्वीरों के लिए उसके रास्ते में खड़ा रहा । उसे बर्दाश्त नहीं हुआ, लामबंद होकर जब वो मेरी तरफ टूट पडी तो मैं तब तक भागता रहा जब तक मौत के क़दमों की आहट कानों से दूर ना हुई । सोचता हूँ कितनी मुक़द्दस घड़ी रही होगी जब मौत पीछा करते करते थक गई और मैं सकुशल होने पर आत्ममुग्ध हो उठा । मगर फ़्लैश बैक में जाता हूँ तो सोचकर रूह थर्रा जाती है । मैं जिन्दा हूँ ये सोचकर उतना ही खुश हूँ जितनी ख़ुशी उसकी तस्वीरें उतारने के बाद मौत को पछाड़ने की ।
                              बिलासपुर जिले में पिछले एक सप्ताह से हाथियों की दस्तक ने जहां ग्रामीणों की नींद हराम कर दी है वहीँ मेरी बेचैनी को भी बढ़ा रखा था । मुझे उनको करीब से देखने और तस्वीरें लेने का जुनून सवार था । हाथी संख्या में 23 बताये जा रहे थे । निश्चित तौर पर इतनी बड़ी संख्या सुनकर मैं उनको तस्वीरो में कैद करने को उतारू हो गया । अख़बार और विभागीय सूत्रों से हाथियों के हाल-मुकाम की जानकारी इकठ्ठी करता रहा । कभी कहीं तो कभी कहीं । मैं कुछ साथियों के साथ पिछले रविवार ग्राम छतौना के जंगल भी पहुँचा । वन कर्मियों की सूचना को सच मानकर दिनभर उस तालाब के किनारे आग उगलती धूप का अत्याचार बर्दाश्त करता रहा जहां दिन ढलते ही वो पानी पीने पहाड़ी से उतरकर आते । उस दिन वो नही आये, दिन भर की तपस्या पसीने के साथ बेकार बह गई ।
                    पेट की खातिर नौकरी भी करनी पड़ती है सो दूसरे दिन से दफ़्तर में आमद देने लगा । फिर ख़बर मिली कि हाथी बेलगहना वन क्षेत्र के कउआपानी में हैं । दिन के वक्त पहाड़ी पर रहने वाले हाथियों के झुण्ड को खोजने की लालसा लिए मैं आज (शुक्रवार) फिर घर से निकल पड़ा । साथ में जितेंद्र रात्रे, उसकी मोटरसाइकिल से हम बिलासपुर से खोंगसरा के लिए बढ़ चले । पिछले दिनों हाथी जहां-जहां थे वहां भी उनकी ख़बर ली । पूछते-पूछते हम खोंगसरा के समीप नगोई गाँव पहुंचे । आज मौसम हमारे साथ था । घूप और गर्मी दोनों से राहत थी । नगोई में एक बैलगाड़ी वाले से पूछकर हम उसकी बताई दिशा की ओर बढ़ गए । नदी-नाले को पार कर हम जंगल के रास्ते पहाड़ के आखरी छोर पर पहुँचे। यहाँ-वहाँ नज़रे दौड़ती रहीं, उन्हें हाथी की तलाश थी । बियाबान जंगल में सिर्फ मैं और जितेंद्र, दूर-दूर तक किसी आदम तो दूर जानवर की आहट भी नही थी, हाँ कुछ पक्षियों  का शोर हमारे साथ था । मन में खौफ़, मगर हिम्मत दूनी । सोचकर पहाड़ चढ़े थे हाथी की तस्वीर लेकर ही लौटेंगे । काफ़ी भटके, पैदल भी चले मगर हाथी नही दिखा । काफी देर बाद बाद निराश होकर पहाड़ से नीचे उतरे और उस नदी के किनारे आकर सुस्ताने लगे जहां से हाथी का पता मिला था ।
                                                  हमारी निराशा को उम्मीद के पंख तब लगे जब पास ही काम कर रही एक बूढी दाई से हमने हाथी का फिर पता पूछा । उसने गाँव (बिटकुली) के एक आदमी को पुकार लगाई और हमारे सवालों के जवाब के लिए उसे सामने बुलाकर खड़ा कर दिया । 'बुधमोहन' हमारी आज की आखरी उम्मीद था, क्यूंकि दिन ढलने में ज्यादा देर नहीं थी। हाथी के बारे में हमने जैसे ही बुधमोहन से पूछा उसके जवाब ने थके शरीर में स्फूर्ति का संचार कर दिया । उसने बताया अभी-अभी हाथियों को देखकर लौटा है । एक बार कहने पर वो हमारे साथ चलकर हाथी दिखाने को तैयार हो गया । हम उसके साथ फिर उसी रास्ते पर निकल पड़े जहां से निराश होकर कुछ देर पहले ही लौटे थे । कुछ दूर मोटरसाइकिल पर फिर पैदल । आगे-आगे बुधमोहन उसके पीछे कदम से कदम मिलाकर हम दोनों । करीब दो किलोमीटर ऊँचे-नीचे रास्ते पर चलते हम उस जगह के करीब थे जहां बुधमोहन ने हाथी देखे थे । तेज बढ़ते क़दमों की रफ़्तार धीमी हो गई, उसने हमसे कहा बस आगे हाथी होंगे थोड़ा आराम से और संभलकर रहिये । जंगल में बड़ी संख्या में हाथी देखना कम रोमांच भरा नहीं था । बुधमोहन की चेतावनी ख़त्म होती उससे पहले ही हाथियों का झुण्ड सामने दिखाई पड़ गया । दबे स्वर में उसने कहा.. लो साहब खींच लो जितनी तस्वीरें खींचना है । हमारे सामने 13 हाथियों का झुण्ड उसमें तीन बच्चे । कुछ तस्वीरें छुपकर लीं, फिर लगा कुछ और बेहतर लिया जाये । पेड़ की आड़ से हम निकलकर थोडा सामने आये । हमारी मौजूदगी की भनक अब तक हाथियों को हो चुकी थी । उनकी हरकत और बच्चों को सहेजने की कोशिश हमको सन्देश देती रही कि हाथी अलर्ट हैं ।
      जान जोखिम में डालकर मैंने कुछ तस्वीरें उनके सामने जाकर लेने की कोशिश की, सफल भी हुआ । इस दौरान हाथी और मेरे बीच का फासला महज 50 से 60 फुट का रहा होगा । एक किनारे साथ गया ग्रामीण,दूसरे छोर पर जितेंद्र । दोनों हाथी से दूर और उनकी नज़रो से बचे हुए । मुझे मेरे अतिउत्साह और बेवकूफी ने उनके सामने खड़ा कर रखा था । देखते ही देखते वो कतारबद्ध हो गए । मुझे उनके समूह की बेहतर तस्वीर मिल गई, लेकिन जब तक मैं कुछ समझ पाता सारे हाथी मेरी ओर लपक पड़े । मैं बिजली की रफ़्तार से मुड़ा और भागने लगा । जंगल के रास्ते भागना आसान नहीं था मगर पीछे मौत का शोर और उसके बढ़ते कदम मुझे भागते रहने को मजबूर कर गए । साँसें उखड़ रहीं थी, क़दमों की रफ़्तार धीमी पड़ती जा रही थी मगर रुकना लाजिमी नहीं था । काफी दूर भागने के बाद एक जगह रुका और मुड़कर पीछे देखा । हाथियों की शक्ल में मेरे पीछे लपकती मौत लौट चुकी थी । थर्राते हाथ-पाँव, रह रहकर ऊपर आती साँसें जंगल से बाहर निकल जाने को कह रहीं थी । इस दौरान मेरे साथी भी भागे लेकिन वो मुझसे काफी आगे और सुरक्षित थे । इस पूरे घटनाक्रम में एक महत्वपूर्ण बात जो देखने को मिली वो अखबार की ख़बरों से दूर है । हम सुबह 11 बजे से शाम 5 बजे तक जंगल की ख़ाक छानते रहे मगर एक भी कर्मी वन विभाग का नज़र नहीं आया । ख़बरों में जरूर मैंने पढ़ा था विभागीय अमला रात दिन मौजूद रहा । हाथियों को खदेड़ने के अलावा ग्रामीणों को सावधान रहने का हांका पाड़ता रहा, परन्तु मौके पर कहीं कुछ नहीं । ग्रामीण अपने भरोसे हैं, जानवर अपने । 
            सोचता हूँ..आज मौत के दर पर दस्तक तो मैंने ही दी थी, उसके रास्ते में खड़ा होकर तस्वीर मैं ही खींच रहा था । किसी ने बुलाया तो था नहीं, फिर लपकती मौत के हाथ अगर आज मैं लग जाता तो हाथियों को कोसा जाता । गलत है, हम इंसान वन्य प्राणियों के अधिकार क्षेत्र में दखल कुछ ज्यादा ही देने लगे हैं । उनके ठिकानों में पैठ बनाकर हम अपनी जरूरतों को पूरा कर रहे हैं । धीरे-धीरे जंगलों के दायरे सिमटते जा रहें हैं और जंगल की ये मूक संताने हमारे क्षेत्र में घुसपैठ को मजबूर हैं । खतरा दोनों को है मगर जानवर अब ज्यादा खतरे में जान पड़ते हैं । उन्हें बचाना होगा, उनके इलाकों को सुरक्षित रखना होगा । वरना मैं तो कल ही मौत को पछाड़कर सकुशल घर लौटा हूँ कहीं कोई अभागा उनकी आगोश में आया तो बेकसूर हाथी कसूरवार ठहराए जायेंगे । मैंने जो किया बिल्कुल उचित नहीं था, क्यूंकि जंगल और जंगली जानवर नहीं जानते आप वन्य प्रेमीं है, फोटोग्राफर है, उन्ही के विभाग से हैं या फिर कोई मंत्री-संत्री ।

Thursday 19 May 2016

अलविदा 'बमेरा'

              "ख़बर मिली है 'बमेरा' के रुख़सत होने की । कभी मुलाक़ात नहीं हुई पर ख़बर मिलते ही मन ख़राब हो गया । मैं 'बमेरा' से मिलना चाहता था, मगर पिछले दिनों ही मालूम हुआ कि अब वो किसी को मिलता नहीं । वजह, बीमारी और उम्र । आज सुबह-सुबह जब लोग उसकी सल्तनत में सैर पर व्यस्त थे उसी दौरान 'बमेरा' ने आख़री साँसें लीं और हमेशा के लिए बाँधवगढ़ को अलविदा कह गया । तुमसे कभी मिला नहीं, पर तुम्हारे नहीं होने की ख़बर से आहत हूँ 'बमेरा'... 'बमेरा' तुम गए नही, यादों में सदा रहोगे । "
        कुछ देर पहले ही मित्रों के जरिये ख़बर मुझ तक आई 'बमेरा' नहीं रहा । वजह बताई गई बीमारी और उम्र के साथ आई कमजोरी । 'बमेरा' उस बाघ का नाम है जिसने बाँधवगढ़ नेशनल पार्क को देश में अलग पहचान दिलाई । 'बमेरा' को जिसने भी देखा है उसकी ख्वाहिश हर बार 'बमेरा' से फिर मुलाक़ात की रही होगी । मुझे अफ़सोस है उससे मुलाक़ात नही हो सकी । उम्र भर इस बात की कमी भी खलती रहेगी 'बमेरा' आखिर मेरे कैमरे में क्यूँ नही कैद हुआ ? हो सकता है उसकी,मेरी मुलाक़ात का वक्त मुक़र्रर ना रहा हो । बाँधवगढ़ का बेताज बादशाह 'बमेरा' पिछले तीन साल से इन्क्लोजर में था । साल 2004 में जन्मा 'बमेरा' उम्र की तय सीमा तक नही जी सका । उसे और उसके विषय में जानकारी रखने वालों ने बताया करीब 4 साल पहले उसके पैर टूट गए और वो कमजोर हो गया । ख़बर आज सुबह करीब 9:45 बजे इन्क्लोजर से बाहर आई 'बमेरा' नहीं रहा ।
         यक़ीन मानिये 'बमेरा' सबको दुःखी कर गया । उसकी चुस्ती फुर्ती और बिंदास अंदाज से वाकिफ़ वन्य प्रेमी बताते हैं 'बमेरा' 7 फुट का था । वो जिस रास्ते गुजरता सिर्फ 'बमेरा' की दहशत और जंगल की ख़ामोशी में खौफ़ का साया नज़र आता । करीब 105 वर्ग किलोमीटर के दायरे में फैला बाँधवगढ़ नेशनल पार्क आज भी बाघों की बहुलता के लिए देश में अलग पहचान रखता है, लेकिन बमेरा.. 'बमेरा' था । उसकी बिदाई में आज बाँधवगढ़ नेशनल पार्क का पूरा  परिवार शामिल हुआ । दुःख की इस घड़ी में कुछ लोगों को इस बात की संतुष्टि भी थी कि 'बमेरा' का वारिश अभी बाँधवगढ़ में पर्यटकों के बीच मौजूद है । मुझे 'बमेरा' नहीं मिला लेकिन उसका बेटा मेरे साथ तस्वीर के रूप में हर वक्त साथ होता है । पिछले ही महीने की बात है, 27 अप्रैल को मैंने और साथियों ने 'बमेरा' का जिक्र किया था । हम बाँधवगढ़ में बाघों की तस्वीर खीचते फिर 'बमेरा' के राज की चर्चा करते । उसी दौरान 'बमेरा' का बेटा न्यू कनकट्टी (बाघिन) के साथ मेटिंग में था । मैंने और साथियों ने तस्वीरें लीं और जल्द ही बाँधवगढ़ फिर लौटने की चर्चा की । 
.... क्या लिखूँ कुछ सूझता नही, दुःख है 'बमेरा' के रुख़सत होने का । चिंता है मध्यप्रदेश में लगातार बाघों के आंकड़ो में आती कमी पर । पिछले कुछ महीने में मध्यप्रदेश में कई बाघों की मौत हुई... सरकार भी चिंतित हुई । आज बाँधवगढ़ नेशनल पार्क के परिवार का हर सदस्य 'बमेरा' की मौत से स्तब्ध है, दुःखी है । मैं सिर्फ इतना ही कहूँगा 'बमेरा'.. तुमसे मिला नही मगर तुम्हारी छाँव को अब तुम्हारे बेटे की तस्वीर में निहार रहा हूँ ।
                                      अलविदा ....... 'बमेरा' तुम गए नही, यादों में सदा रहोगे । 

Wednesday 18 May 2016

घोड़ा और मतदाता..रहमोकरम पर

                 "अगर आपको व्यापार में घाटा हो रहा हो... परीक्षा में लगातार असफल हो रहें हों। माशूका किसी बात से रूठकर चली गई हो... घर में बीवी के कलह से परेशान हों या फिर घर में कोई वास्तु दोष हो । सिर्फ 10 रूपये... 10 रूपये में इन सारी समस्याओं का समाधान हमारे पास है । आइये.. आइये केवल 10 रूपये में काले घोड़े की नाल घर ले कर जाइये । हमारी गारंटी है, काले घोड़े की नाल आपकी हर समस्या का अंत है ।"
              ये शोर कइयों बार आपके कान के परदों को भेदता दिमाग तक पहुँचा होगा । इस तरह का नज़ारा देखकर कोई असहजता भी महसूस नही होती मगर बहुत ही सामान्य सी दिखने वाली इस तस्वीर में मुझे कई असाधारण सी बाते नज़र आईं । आज भी रोज की तरह रोजगार के लिए घर से निकला । ट्रेन में धकियाते, सरकते बिलासपुर से रायपुर पहुँचा । स्टेशन के बाहर धर-दबोचने का भ्रम बनाये खड़े ऑटो वालों की भीड़ से निकलता उस ऑटो में सवार हुआ जिसका चालक पसीने से लथपथ पंडरी.. पंडरी चिल्ला रहा था । अधिकतम 4 की क्षमता वाले ऑटो में मेरे सहित आज 7 लोग सवार थे । स्टेशन से पंडरी पहुँचते पहुँचते... उफ्फ्फ्फ़ । ऑटो से उतरकर आगे बढ़ा ही था कि आस-पास के शोर-शराबे को भेदती किसी लाउडस्पीकर की आवाज कानों में समाई । रुककर देखा,  बात सुनी और एक तस्वीर लेकर आगे बढ़ गया ।
                                        जिंदगी की तमाम परेशानियों का समाधान बाबाआदम के जमाने की एक घोड़ा गाडी पर था । कमरतोड़ महँगाई में सिर्फ 10 रूपये में सारी परेशानियाँ ख़त्म कर देने का दावा । काले घोड़े की नाल, सबूत के तौर पर उस गाड़ी में मौजूद चुस्त-दुरुस्त काला घोड़ा । एक टूटी हुई प्लास्टिक की बाल्टी में मालिक की मेहरबानी (दाना) पर मुँह मारता ख़ामोशी से खड़ा था । सब कुछ सामान्य सा... घोड़ा दाने में व्यस्त... दो मुस्टंडे गाड़ी में लदे पास से गुजरने वाले हर इंसान के चेहरे को ताकते । बैटरी चलित चोंगा (लाउडस्पीकर) 10 के नाल की बार-बार उपयोगिता का शोर मचा रहा था । सड़क पर चलने वाले आसमान की तपन से झुलसते यहां-वहां पहुंचने की जल्दबाज़ी में दिखे ।
                                       बड़ा ही सामान्य सा दृश्य... पर इस दृश्य को जैसे ही असामान्य तरीके से देखता हूँ तो आज की व्यवस्था का सजीव चित्रण आँखों के सामने आता है । जब इस तस्वीर को सियासी चश्मा लगाकर देखता हूँ तो तस्वीर में घोड़े की भूमिका सबसे अहम् नज़र आती है, जैसे लोकतंत्र में आम मतदाता की । तस्वीर में घोड़ा मालिक की मेहरबानी पर चुपचाप परोसा गया चारा चर रहा है । लोकतंत्र में आम जनता की स्थिति भी इस घोड़े से बेहतर नजर नही आती । छत्तीसगढ़ की सियासी पृष्ठभूमि के मद्देनज़र इस तस्वीर को देखता हूँ तो पाता हूँ, यहां की गरीब और मजबूर जनता भी सरकार के रहमोकरम पर ही रेंग रही है । सरकार चना-चावल, गुड़-नमक सब तो मुफ़्त में बाँट रही है । शिक्षा मुफ़्त, ईलाज का जुगाड़ । यहाँ तक कि हर तीर्थ स्थान तक लाना ले-जाना मुफ़्त । सोचिये कितने दयालु, कृपालु हैं 'सरकार'। सब कुछ स्वार्थ के लिए... सर पर छत से लेकर पेट की आग बुझाने तक का इंतज़ाम । इलाज से लेकर तीर्थ यात्रा का जुगाड़ । सिर्फ .... सियासत के लिए, वोट के लिए । सरकारें इन योजनाओं का ताना-बाना बुनकर गरीब, मेहनतकश को कामचोर और निकम्मा बना चुकी है । मुफ़्त के चावल से बनती और मिलती शराब गरीब मतदाता को नशे का आदि बना चुकी है । नकारा, निकम्मे लोग सिर्फ वोट बैंक बनकर रह गए हैं । गरीबों को गरीबी की मटमैली, जिल्लतभरी  चादर ओढ़ाकर सरकारें केवल अपना और अपने कद के मुताबिक़ नज़र आते लोगों (उद्योगपति, पूंजीपति) को बढ़ाने के रास्ते खोलते रहीं हैं। प्रशासनिक व्यवस्था को आम जनता की पीठ पर ठीक वैसे ही बैठा दिया गया जैसे घोडा गाड़ी में सवार दो मुस्टंडे । देखें तो सब कुछ व्यवस्था का व्यवस्थित अंग है। इस व्यवस्था का आदि हो चूका 'घोडा' आम आदमी की तरह ख़ामोशी से मालिक के रहमोकरम पर जीता हुआ अगले आदेश की प्रतीक्षा में धूप सेंक रहा है । 
        गज़ब की विडम्बना है, सूचना क्रांति के सारे दावे और विज्ञान के नित नए आयाम को छू लेने वाले इस देश में आज भी अंधविश्वास की गाड़ी का पहिया घूम रहा है । कोई तोता लिए किसी नुक्कड़ पर बैठा भविष्य के सलोने सपने दिखाकर परिवार पाल रहा है तो कोई सालों साल बिना नहाये आपकी बरक़त के लिए ऊपर वाले से दुआ माँग रहा है ।  कहीं पर 100-200 रूपये में धन वर्षा यंत्र मिल रहा है तो कोई जर्जर दीवारों पर गुप्त रोगों के इलाज का दावा पुतवाकर जिंदगी की गाड़ी अहर्निश हांक रहा है । अब आप ही बताइये ये सामान्य सी नज़र आती तस्वीर हैं न मेरे लिए असामान्य...? 

Saturday 14 May 2016

'तपेश' से मेरा सवाल

                        " झूठ ही सही मगर खुश होने के लिए ये ख़बर अच्छी है कि अचानकमार टाईगर रिजर्व में बाघ दिखाई देने लगे हैं वो भी बड़ी संख्या में । किसी ने देखा नहीं, इसका खुलासा तबादले पर जगदलपुर गए एक अफ़सर के सोशल मीडिया पर आये बयान और कुछ अखबारों की सुर्ख़ियों से हुआ है । बाघ कहाँ देखे गए और कितनी संख्या में हैं ये सिर्फ तपेश झा को मालूम है और ट्रैप कैमरे की नज़र में है ।"
                                       अचानकमार टाईगर रिजर्व के फील्ड डायरेक्टर तपेश झा का मुख्य वन संरक्षक पद पर जगदलपुर तबादला हो गया। जाते-जाते उन्होंने अपनी वाल (सोशल मीडिया) पर मन में बिलबिला रहे ग़ुबार को बाहर निकाला । मीडिया, सोशल मीडिया, मातहत अधिकारियों और पर्यावरण से जुड़े असंख्य लोगों पर कई सवाल खड़े किये । अचानकमार टाईगर रिजर्व में अपने कार्यकाल के अनुभवों का खुला चिठ्ठा सोशल मीडिया पर छोड़ने वाले तपेश ने जिन-जिन वर्गों को सवालों के कटघरे में खड़ा किया और अपनी वृहद् सोच के साथ कार्यशैली का बखान किया उसे उनकी कायराना हरकत कहूँ तो शायद गलत न होगा । झा साहेब ने अपनी कार्यकुशलता और बुद्धिमता का आंकलन खुद कर लिया, उन्होंने अचानकमार टाईगर रिजर्व में कई ऐतिहासिक काम करवाये । इस बात का खुलासा उन्ही के शब्दों ने किया । उन्होंने अपनी वाल (फेसबुक ) पर काफी कुछ लिखा है। उस पोस्ट की तस्वीर ...

इस वन अफ़सर के आभार और निवेदन पत्र की पहली लाईन पर गौर करें तो उन्होंने कम समय के कार्यकाल में 15 से 19 बाघ ढूंढ निकाले हैं जो मूलतः अचानकमार टाईगर रिजर्व के निवासी बताए जा रहें हैं । उन बाघों के साथ कई शावकों के मिलने की पुष्टि भी तपेश झा की वाल पर लगी पोस्ट से होती है । उन्होंने इस बात का जिक्र भी खुलकर किया है कि बाघों को ढूंढने में उनके साथ जमीनी अमला लगा था, रेंजरों को भी खबर नहीं दी क्योंकि गोपनीयता भंग होने का खतरा था । रेंज के अधिकारियों की मदद के बिना उन्होंने करीब 19 बाघ ढूंढ निकाले । ये बाघ पिछले डेढ़ दशक से कहाँ थे शायद झा साहब बता पाएं । उनकी एक बात को पढ़कर हंसी भी आ रही है, उन्होंने जिक्र किया है बाघों की सीधी रिपोर्टिंग उन्हें ही थी क्योंकि उन्हें अपने अफसरों पर भरोसा नहीं था । उन्हें इस बात का डर खाये जा रहा था कि किसी रेंजर को अगर पता चल गया तो वो बाघ को इलाके से खदेड़कर बाहर भगा सकता है । गज़ब की कार्यशैली है, जो काम दशकों से नहीं हुआ उसे करीब दो साल में कर दिखाना झा साहेब की कुशाग्र बुद्धि का ही नतीजा है । सवाल अब यहीं से शुरू होता है । अचानकमार टाईगर रिजर्व में 27 से 29 बाघ होने के आंकड़े इन्ही के अफ़सरान पेश करते रहें हैं । इनके मुताबिक़ 19 बाघ मिल गए है, अगर कुछ दिन और होते तो शायद और मिल जाते । क्या जिन 15 से 19 बाघों के मिलने की पुष्टि साहब करके जगदलपुर चले गए वो पर्यटकों की नज़रों में कभी आ सकेंगे ? अगर इतने बाघ हैं तो टाईगर रिजर्व बनने (2009) के बाद सफारी पर गए कितने पर्यटकों ने बाघ देखा ? जंगल सफारी की डायरी से कितने पर्यटकों की संतुष्टि के आंकड़े सामने लाये गए ? दूसरे टाईगर रिजर्व की तुलना में इस टाईगर रिजर्व में कितनी सुविधाएँ पर्यटकों को मुहैय्या कराई गईं ? क्या जंगल सफारी के लिए तय किया गया मार्ग उचित है ? क्या पर्यटकों की तुलना में विभाग के पास पर्याप्त संसाधन हैं ? क्या विभागीय का अमले आचरण पर्यटकों के प्रति मित्रवत है ? ऐसे-ऐसे कई सवाल हैं। 
                "थोथा चना बाजे घना" ये कहावत तो झा साहब ने भी पढ़ी, सुनी होगी । इस बार भी कुछ ऐसा ही हुआ । साहेब ने लिखा अपने समकक्ष अधिकारीयों और मीडिया से अपनी अव्यवहरिक्ता और दूरी बनाये रखने के लिए हमेशा आलोचित होते रहे फिर भी उन्हें आलोकित होने का आभास है । उन्होंने साफ़ लिखा है मैं आलोचित होकर भी आलोकित होता रहा । कहाँ उनके आलोक का प्रकाशपुंज फैला वो ही बता पाएंगे । " अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता" पर झा साहब ने कर दिखाया । हाँ उन्होंने ये नहीं बताया कि अचानकमार में बाघों की संख्या घटी या फिर बढ़ गई । उन्होंने ये भी खुलासा नहीं किया कि जिन रास्तों पर पर्यटकों को लेकर जाया जाता हैं वहां क्या बाघ दिखाई पड़ सकता है ? शायद सब कुछ गोपनीय है, खतरा मीडिया, समकक्ष अधिकारियों और पर्यावरण प्रेमियों से है । वैसे आप जिस मिज़ाज के है ये स्थिति हर जगह बनी रहेगी । साहब ने जंगल और जंगली आदमियों से प्रेम का भी खुलासा किया है । उन्होंने कुछ तस्वीरें भी अपनी पोस्ट पर लगाई जिनका आशय सिर्फ वो ही समझ सकते हैं । उन्होंने आदिवासियों से प्रेम और उनके साथ पारंपरिक गीत गाने की बात भी लिखी है। उन्होंने ये नहीं बताया की इतने प्रेम के बावजूद कितने आदिवासी परिवारों को उन्होंने मनाकर पुनर्वास करवाया ! अचानकमार टाईगर रिजर्व से करीब 20 से अधिक गाँव का विस्थापन होना अभी बाकी है । अचानकमार इलाकें में सक्रिय दैहान और उसकी आड़ में होते अवैध कब्जे पर कितना अंकुश लगा ? क्या आपके रहते अचानकमार के बिगड़े भूगोल की सूरत बदली ? क्या आपने जिन लोगों को अवैध और गैर कानूनी कार्यों को अंजाम देने का हवाला देकर जेल भिजवाने का जिक्र किया उसमें एक भी रसुखदार या फिर सियासी चेहरा था ? बड़े मगरमच्छ आज भी उतने ही बेफिक्र और बिंदास हैं। उनकी नज़र में आप जैसे ना जाने कितने आये और चलते बने।
                 अरे साहब ... आप भी जानते है और आपके ईमानदार-कर्तव्यनिष्ठ अधिकारी भी, क्या कुछ नहीं होता अचानकमार टाईगर रिजर्व इलाके में । आपने कुछ किया नहीं सिवाय जंगल में अपनी मौजूदगी दिखाने के । आपकी चाकरी और आपके भ्रमण को लेकर जंगल के रास्तों में तैनात जमीनी अमला शायद जंगल की सुरक्षा में मुस्तैद होता तो लगता जंगल के प्रति साहब का रवैय्या सकारात्मक है । अरे भाई साँझ को आंच क्या... बिना कुछ किये आप कायरों की तरह सामने आये भी तो कहाँ, उसी सोशल मीडिया पर जिसकी एक तस्वीर (सोनू हाथी) ने वन महकमें की असंवेदनशीलता और निकम्मेपन का सच सामने लाकर आप जैसे कर्मठ लोगों के पसीने छुड़ा दिए । साहब ने लिखा सीमित और अल्पज्ञानी मीडिया को जब अचानकमार टाईगर रिजर्व में वीवीआईपी ट्रीटमेंट नहीं मिला तो वे हाथी जैसे मुद्दे को लेकर सामने आ गए ।
                    मैं आपके असीमित ज्ञान और बुद्धिशाली वैभव का कायल हो गया । सोनू हाथी का मुद्दा जिसे आप ऐसा-वैसा कह रहें हैं तपेश जी वो ऐसा-वैसा मुद्दा नहीं है । हाँ ये बात दिगर है कि सोनू (हाथी) ने आप जैसे कई बड़बोले और अहंकारी अफसरों की नींद हराम कर दी । उस पर होते जुल्म और उसके मरणासन अवस्था में पहुँचने की पहली तस्वीर मैंने ही खींची जो बाद में स्थानीय फिर राष्ट्रीय स्तर पर कई अखबारों, पत्रिकाओं और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में प्रकाशित हुईं । अरे साहब.. आप लोग तो पहले ही एक हाथी मार चुके थे, यक़ीनन तस्वीर सामने नहीं आती तो सोनू भी अब तक दफनाया जा चूका होता । वैसे भी सोनू [हाथी] के मामले में  आप सभी ने किस तरह हाईकोर्ट को गुमराह करने की कोशिश की, कैसे सिंहावल सागर में हाथियों के लिए रेस्क्यू सेंटर बनाने का करोड़ों का प्रस्ताव लेकर आप लोग हाईकोर्ट के समक्ष हाजिर हुए किसी से छिप न सका।  दरअसल आप हाथी की आड़ लेकर अपनी  निराशा और कुंठा को जग-जाहिर कर गए। अरे जिन नौकरशाहों का चापलूस और दरबारी होना मीडिया को बता रहें हैं वो नौकरशाह कौन हैं ? कौन मीडिया वाला है ? कीजिये उसका नाम सामने, निश्चित तौर पर दरबारी और चरणभाठ लोगों का नाम सामने आना चाहिए।  
                                                                मेरा आपसे अनुरोध है जब आप इतने रुष्ट हैं साहब, तो सभी का नाम उजागर कीजिये । निःसंदेह कुछ लोगों ने हाथी जैसे मुद्दे पर रोटी सेंकने की कोशिश की होगी । ये भी सच है कि पर्यावरण और वन्य जीव प्रेमी बनकर कई ठेकेदार जंगल को लूटते रहे, पर ये काम आपके विभागीय अधिकारियों की सहमति से होता रहा । जंगल को लूटने के खेल में हिस्सेदारी सबमें हुई । सत्ता से लेकर प्रशासनिक चौखट तक जंगल की मिट्टी के अंश मिले । इस हिस्से का कुछ अंश मेरे (मीडिया) साथियों को भी मिला। कौन बचा, कोई नहीं । सबने अपने-अपने हिस्से का पाया और जंगल की आबरू को खुले बाज़ार में छोड़ दिया लुटने के लिए । अरे आपका एक अफ़सर शिवतराई के रेस्ट हॉउस को स्थाई ठिकाना बनाकर खेती-किसानी, बकरी और मुर्गी पालन कर रहा है आप उसको कितनी नसीहत दे सके ? दरअसल मुझे जो लगता है आपको किसी ने समझा ही नही शायद इसीलिए वो आपको कोसते रहे और जाते-जाते आप सभी को कोस गए । आपसे कभी मुलाक़ात नहीं हुई ना कभी जरूरत पड़ी। सिर्फ सुना हैं आप बड़े ही ईमानदार और विवेकशील अफ़सर हैं ? मेरे पास सवाल कई हैं साहब लेकिन जवाब जहां मिलने की उम्मीद न हो वहां माथपच्ची करने का कोई फायदा नहीं । वैसे भी आपने आभार और निवेदन पत्र में सोनू हाथी का जिक्र नहीं किया होता तो आप क्या, किसी भी अफ़सर के लिए मेरे पास इतना वक्त और शब्द नहीं जिसे व्यर्थ करूँ ।
                                                "खुदा के हुक्म से शैतान भी हैं आदम भी 
                                             वो अपना काम करेगा तुम अपना काम करो।" 
                                                              आपके कार्यों का यशगान होता रहे, अचानकमार टाईगर रिजर्व में सिर्फ आप जैसे अफसरों को नहीं बल्कि पर्यटकों को भी बाघ दिखाई पड़े साथ ही जगदलपुर की आबो-हवा आपके मुताबिक हो इन्ही कामनाओं के साथ...।

Thursday 5 May 2016

साहब का जूता और जूते पर जूतम पैजार

                                      " जूता खूब चर्चा में है, जैसे ही ज़मीन से उठकर बिस्तर पर पहुँचा सुर्खियों में आ गया । उस जूते नें ना सिर्फ बिस्तर पर जगह बनाई बल्कि पहनने वाले व्यक्ति के चरित्र को भी उजागर किया । जूता किसी आम-ओ-ख़ास के पाँव का होता तो भी गनीमत थी । ये जूता तो एक ऐसे पाँव का था जिसने रात दिन एक कर आईएएस का इम्तहान पास कर लिया था । लोकसेवक बनने के पहले जूते का मालिक डॉक्टर था ।"
                                             ये शोर-शराबा, हो-हल्ला सिर्फ उस आईएएस अफ़सर डॉ. जगदीश सोनकर के जूते को लेकर मचा है जिसने एक महिला मरीज का कुशलक्षेम पूछने की सरकारी औपचारिकता के बीच पैर उसके बिस्तर पर रख दिया । डॉक्टर सोनकर प्रशिक्षु आईएएस हैं जो वर्तमान में बलरामपुर जिले के रामानुजगंज में एसडीएम हैं । सरकार ग्राम सुराज अभियान के जरिये आम जनता के बीच पहुँचकर समस्याओं के निराकरण में लगी है और इधर नए नवेले अफ़सर के जूते ने नई समस्या खड़ी कर दी । वैसे इस घटनाक्रम ने प्रशासनिक चरित्रावली का चेहरा भी उजागर किया साथ ही सोनकर जैसे नए प्रशासनिक अफ़सर की उस लालसा को भी दर्शाया  जिसमें वो आम जनमानस को जूते की नोक पर रखने की ख्वाहिश रखता है । एक प्रशासनिक अफ़सर कितना मगरूर और बे-परवाह हो सकता है उसका उदाहरण है जगदीश सोनकर । जिस इंसान को डॉक्टर होने के बाद मरीज से बात करने का सलीका न हो वो कितना कुशल लोक प्रशासक होगा अंदाज लगाया जा सकता है । वैसे इस अफसर की बे- अदबी से आईएएस एसोसिएशन भी खफा है, हालाकिं ख़बरें ये भी इशारा करती हैं कि डाक़्टर सोनकर की करतूत पर आईएएस अफसरों की भी अपनी-अपनी राय है। डाक़्टर सोनकर ने 2006-07 में एमबीबीएस किया। बाद में उन्होने आईएएस की परीक्षा पास की। वे भारतीय प्रशासनिक सेवा 2013 बैच के अफसर हैं। वैसे ये कोई पहले अफसर नहीं हैं जिन्होंने बे-अदबी की हो। समय-समय पर ऐसे प्रशासनिक अफसरों की बेजा हरकतें सुर्खियां बटोरती रहीं हैं।  
                    ये घटनाक्रम का एक पहलू है, दूसरा पहलू मीडिया (इलेक्ट्रॉनिक-प्रिंट) और सोशल मीडिया की भूमिका के साथ सियासत के गिरते ग्राफ का है। आखिर ऐसी कौन सी त्रासदी जैसी ख़बर सामने आ गई थी जिसमें मुख्यमंत्री डॉक्टर रमन सिंह को बयान देना पडा । रमन सिंह को कहना पड़े कि नए अफ़सर को सीखने में अभी समय लगेगा । मतलब साफ़ है नए साहब पढ़े-लिखे जरूर हैं मगर आम इंसानो से आचरण की तमीज़ सीखना अभी बाकी है । उधर पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी भी इस मसले पर बोलने से नहीं चूके । जोगी ने नौकरशाहों को बेलगाम बताया । अखबारों ने उस बेसउर अफ़सर की करतूत पर प्रदेश की राजनीति में उफ़ान मारने जैसी ख़बरें को प्रमुखता से प्रकाशित किया । कुछ निक्कमे तो अफ़सर के खिलाफ कार्रवाही की मांग का झंडा लेकर शोर मचाने लगे । इन सबको हवा देने की शुरुआत हुई सोशल मिडिया के मंच से । सोशल मिडिया पर एक तस्वीर के जरिये उस नौकरशाह की मनोवृति को बताने की कोशिश की गई जो चंद घंटे में हर हाथ में थी । अच्छा है, कम से कम एक नौकरशाह के अंदाज़ को सामने लाकर प्रशासनिक चरित्र का खुलासा करना, मगर क्या ये इतना बड़ा मुद्दा था जिस पर बहस हो या फिर मुख्यमंत्री को बयान देना पड़े ? मिडिया के गिरते ग्राफ और उस पर हावी बाज़ारवाद के बाद सोशल मीडिया की भूमिका को आज के दौर में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सशक्त माध्यम माना जा रहा है लेकिन सोशल मीडिया की भूमिका पर भी संकट के बादल मंडरा रहें हैं ।
               गंभीर और जनहित के मुद्दों को छोड़ सोशल मीडिया पर इस तरह की तस्वीरें आम हैं जिसमें दिखाया जाता है, फलाना अफ़सर सरकारी नल का पानी पी रहा है , ढिमका सिंग ने फलां जगह खड़े होकर नाली साफ़ करवाई । उस अफ़सर ने दिन में तीन बार कपडे बदले, फलाना अफ़सर पत्नी के साथ चौपाटी पर चाट चाटने पहुंचा । हद है, लाईक और शेयर फिर उस पर कॉमेंट्स के मंच पर ऐसी वाहियात हरकतों को तरजीह देना यक़ीनन उचित नहीं पर क्या करें अभी तो साहब का जूता और जूते पर जूतम पैजार जारी है ।