Friday 26 August 2016

सेल्फी... एक सनक !

यह दौर दरअसल मोबाइल क्रांति का है। इसने सूचनाओं और संवेदनाओं दोनों को कानों-कान कर दिया है। अब इसके चलते हमारे कान, मुंह, उंगलियां और दिल सब निशाने पर हैं। मुश्किलें इतनी बतायी जा रही हैं कि मोबाइल डराने भी लगे हैं। इसी क्रान्ति ने मौजूदा दौर में 'सेल्फी' नाम के लाईलाज बुखार को भी संक्रमण की तरह आम-ओ-ख़ास तक फैलाया है। सेल्फी फीवर से संक्रमित मरीज अब लापरवाहियों के चलते मौत की आगोश में भी समाते जा रहें हैं। अक्सर सेल्फी ज्वर से तपते व्यक्ति की एक तस्वीर यादगार बनकर परिवार के लिए ज़िन्दगी भर का दर्द दे जाती हैं।
सेल्फ़ी हमारे सेल्फ मूड की खुली नुमाईश हैं जिसके जरिये हम अक्सर अपनी संवेदनहीनता का परिचय सरे राह-बीच बाजार दे जाते हैं । ख़ुशी का मौक़ा हो या मातम का रुदन, मज़हब की चौखट हो या बिस्तर की सलवटों में सिमटता जिस्म,  सेल्फ़ी हर मौके की चश्मदीद गवाह है । मोबाईल फ़ोन के फ्रंट कैमरे नें कई बार रिश्तों की मिठास में कड़वाहट का ज़हर भी घोला है लेकिन हम किसी भी घटनाक्रम से सबक नही लेते । मुझे लगता है सेल्फ़ी सिर्फ एक सनक है, हमारे दिमाग की एक ऐसी उपज जिसमें संवेदनाओं का कोई मोल नही । कई बार तो ये भी लगता है कि बिना सेल्फ़ी के ख़ुशी और मातम के मौके अधूरे हैं । रस्म, रिवाज सा हो गया है सेल्फ़ी का ज्वर । अफ़सोस तब होता है जब सेल्फ़ी का संक्रमित मरीज श्यमशान घाट, सड़क हादसे, भीख लेते-देते, किसी की मदद करता एक सेल्फ़ी उतारता है और बेहद गंभीर भाव से सोशल मीडिया पे उसे पोस्ट कर घटनाक्रम से अवगत कराते हुए मौके पर अपनी मौजूदगी का सबूत पेश करता है । उसे इस बात से बाद में सरोकार होता है कि मरने वाले से उसका क्या रिश्ता है, जिसकी मदद करते हुए हाथ आगे बढ़ाये वो कितना जरूरतमंद है ? सिर्फ एक सेल्फ़ी फिर वाहवाही... हमने फ़लाना मोहल्ले में वृक्षारोपण किया, फ़ला तालाब की सफाई की । वृद्ध आश्रम में दर्जन भर केले बांटे, गरीबों को भण्डारा कराया ।  ऐसे कई मौके हैं जो सेल्फ़ी के जरिये आपके सेल्फिश होने की कहानी कहते हैं पर भ्रम में जीते सेल्फीरियों को लगता है सब ठीक है। दरअसल हकीकत वो नही होती जैसा हम सोचते समझते हैं ।  हम बाज़ार में कहीं भी कभी भी मोबाईल कैमरे के जरिये फोटोग्राफी के शौक को पूरा कर रहें हैं। दुर्भाग्य देखिये इस देश में हर हाथ को काम नहीं पर हाथों हाथ मोबाइल फोन है। हर वर्ग-उम्र के पास संचार क्रान्ति की डिबिया मौजूद हैं जिसके आगे लगी एक आँख हमारी सूरत और सीरत को हूबहू नहीं देखती  पर हमको लगता है हर शॉट परफेक्ट है। वैसे भी सेल्फ सर्विस की सूरत अलग से दिखाई पड़ती हैं । किसी की आधी तो किसी की पूरी जीभ बाहर । होंठ चोंच की तरह आगे को खींचे हुए, अधखुली आँखे और बिना कंघी के संवरें बाल । वाह क्या खूबसूरत तस्वीर... अब तो सेल्फ़ी पीड़ितों के लिए बाज़ार में दो हाथ लंबी छड़ी भी उपलब्ध है जिस पर मोबाइल लटकाकर लटके-झटके के साथ खींचे हुए चेहरे की एक क्लिक...।
सेल्फ़ी के दौर में सेल्फिश हुये इंसान ने रिश्तों को महज़ एक तस्वीर में समेटने की कोशिश की है । हम हर मौके पर एक ग्रुप सेल्फ़ी के बाद सेल्फ डिपेंड नज़र आते है । कई मायनों में सेल्फ़ी की भूमिका आजीवन यादगार बनकर रह जाती है तो कई बार एक सेल्फ़ी यादगार तस्वीर के रूप में हम पर हार चढ़वा देती है । अक्सर सेल्फ़ी के पागलपन में हमारे हिस्से तस्वीर की शक्ल में सिर्फ मौत आती है । कई घटनाएँ है जो जहन को झकझोर देती हैं पर सबक कितनो को मिलता है ? खोजिएगा तो आंकड़े शून्य  ।
   मोबाइल फोनों ने किस तरह जिंदगी में जगह बनाई है, वह देखना एक अद्भुत अनुभव है। कैसे कोई चीज जिंदगी की जरूरत बन जाती है- वह मोबाइल के बढ़ते प्रयोगों को देखकर लगता है। वह हमारे होने-जीने में सहायक बन गया है। पुराने लोग बता सकते हैं कि मोबाइल के बिना जिंदगी कैसी रही होगी। आज यही मोबाइल खतरेजान हो गया है। पर क्या मोबाइल के बिना जिंदगी संभव है ? जाहिर है जो इसके इस्तेमाल के आदी हो गए हैं, उनके लिए यह एक बड़ा फैसला होगा। मोबाइल ने एक पूरी पीढ़ी की आदतों उसके जिंदगी के तरीके को प्रभावित किया है।  ये फोन आज जरूरत हैं और फैशन भी। नयी पीढ़ी तो अपना सारा संवाद इसी पर कर रही है, उसके होने- जीने और अपनी कहने-सुनने का यही माध्यम है। इसके अलावा नए मोबाइल फोन अनेक सुविधाओं से लैस हैं। वे एक अलग तरह से काम कर रहे हैं और नई पीढी को आकर्षित करने का कोई अवसर नहीं छोड़ते। ऐसे में सूचना और संवाद की यह नयी दुनिया मोबाइल फोन ही रच रहे हैं। आज वे संवाद के सबसे सुलभ,सस्ते और उपयोगी साधन साबित हो चुके हैं। मोबाइल फोन जहां खुद में रेडियो, टीवी और सोशल साइट्स के साथ हैं वहीं वे तमाम गेम्स भी साथ रखते हैं। वे दरअसल आपके एकांत के साथी बन चुके हैं। वे एक ऐसा हमसफर बन रहे हैं जो आपके एकांत को भर रहे हैं चुपचाप। कोशिश कीजिये इस जरूरत का जरूरत भर इस्तेमाल करने की साथ ही उसके सामने की आँख [फ्रंट कैमरा] से आँख मिलाते वक्त सावधानी बरती जाए।  आपकी सावधानी ना जाने कितनी जिंदगी की खुशियों का हिस्सा है .. !   

Thursday 11 August 2016

कुछ सवाल 'स्मिता' से

 "सलाम करता हूँ हुजूर के जज्बे, ईमानदारी और सर झुकाता हूँ उनकी कर्तव्यनिष्ठा पर जिन्होंने बारिश से भीगते जूते तो बचा लिए पर खुद तरबतर होकर यातायात व्यवस्था सँभालते रहे। सोशल मीडिया पर पिछले दिनों ये पोस्ट आई तो लगा मुझे भी कुछ कह लेना चाहिए, पोस्ट में बात ही कुछ ऐसी लिखी है । पोस्ट सोशल मीडिया पर वायरल हुई, जिसमें एक कर्तव्यनिष्ठ सिपाही की बारिश में भीगती हुई तस्वीर है । पोस्ट में लगी तस्वीर निःसंदेह उस सिपाही की कार्यदक्षता को प्रमाणित करती है जिसे न बारिश की नमी से खीज उठती है, ना ही उसे लू के थपेड़ों से डर लगता होगा।" ये पोस्ट सोशल मीडिया के पते पर मुझे मिली, पतेदार का नाम स्मिता तांडी  है। नाम काफी मक़बूल है, फिर भी उन लोगों से इस नाम का तार्रुख़ जरूरी है जो स्मिता को नहीं जानते। पेशे से छत्तीसगढ़ पुलिस में सेवारत हैं, मोहतरमा का दूसरा परिचय भी है, जो शायद पुलिस सेवा से ज्यादा बड़ा है। पारिवारिक जिम्मेवारियाँ , पुलिस की नौकरी के साथ-साथ सामाजिक कर्तव्यों का पालन करना मोहतरमा की नियमित दिनचर्या में शामिल हैं। स्मिता का नज़रिया मुझे पुलिसिया कम, मानवीय ज्यादा नज़र आता है। चूँकि मेरी फेसबुक पर मित्र हैं लिहाजा उनकी पोस्ट के जरिये मानव सेवा की तस्वीरें रोज देखता रहता हूँ। एक सामाजिक संस्था की सदस्य हैं जिसका काम जरूरतमंदों को हर संभव मदद करना है। उनकी संस्था [जीवनदीप] ने कई ज़िन्दगी आबाद की, कइयों को बिछड़े माँ-पिता से मिलवाया तो कई घरों में उम्मीद की नई रोशनी पहुँचाई। आप साधुवाद की सिर्फ हकदार नहीं, बल्कि आपकी पूरी टीम बिगड़ते परिवेश में मानवीय मूल्यों को सहेजने की कोशिशों में अब तक सफल हैं।
                           स्मिता जी, मैंने पुलिस और पुलिसिया गतिविधियों को करीब से देखा है। सच कह रहा हूँ कभी अच्छा लिखने का मन ही नहीं हुआ, मैं ये नहीं कहता इस देश का पुलिस परिवार अच्छा नहीं है लेकिन उनकी संख्या उस भीड़ में नहीं के बराबर है जहां खाकी से लिपटा अधिकाँश चेहरा भ्रष्ट, बेईमान है। वो अमानवीय कृत्यों की घिनौनी मंडी में अपनी पारी का इंतज़ार करता खड़ा नज़र आता है। आपने जिस पोस्ट के जरिये पुलिसिया जनभक्ति की एक तस्वीर प्रस्तुत की वो सही मायने में एक ईमानदार इंसान की हो, जिसे अपने कर्तव्यपथ में बारिश की नमी से न खीज उठती है ना ही लू के थपेड़ों से सेहत का मिज़ाज़  बदलता है, पर ऐसे ईमान की रोटी खाने वालों की जरूरत कितनों को है ? अगर हुजूर ज्यादा कर्तव्यनिष्ठ और ईमानदारी की रोटी खाते है तो मातहतों का हाजमा खराब रहता होगा या फिर हजूर को उनके हुक्मरान चैन की नींद नहीं लेने देंगे। चौराहे पर खड़ा सिपाही नियम-कायदे को जूते की नोक पर रखने वालों को नहीं देख पाता । उसकी नज़र सिर्फ कमजोर और बेबस को तलाशती रहती है, ताकि ड्यूटी का वक्त ख़त्म होने तक वर्दी की जेब भारी हो सके। यही हाल थानों, दफ्तरों में हैं। विडम्बना तो यही है हम बाज़ार में भीड़ से मानवता और नैतिक मूल्यों की उम्मीद रखतें है जबकि उसका अभाव हमारे परिवार [संस्था-विभाग] में अधिक होता है। देश के भिन्न-भिन्न सूबों से पुलिसिया कार्यशैली की ख़बरें सामने आती रहती हैं। उन ख़बरों में प्राथमिकता जरूर पुलिस की गैरवाजिब करतूतें, क्रूरता की होती हैं। क्या कीजियेगा बाज़ार की मांग के मुताबिक़ जबसे अख़बार और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की मंडी में ख़बरों में तड़का लगने लगा तब से अधिकाँश काले कारोबारियों को लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ का मालिकाना हक़ मिल गया। हम तो बस उस रसोइये की भूमिका में हैं जिसे हर ग्राहक की ज़बान के मुताबिक़ स्वाद परोसना है। हाँ शुक्र है सोशल मीडिया का जहाँ काफी कुछ लिखने, बोलने की आज़ादी है। 
 लिखते-लिखते हुजूर को भूल गया, चलिए मुद्दे पर आता हूँ। स्मिता जी आपकी पोस्ट जिसे आपने किसी राहुल शर्मा जी के फेसबुक पेज से लिया और काफी कुछ लिखकर उसे जनहित से जुड़ा मसला बताते हुए शेयर करने की अपील की। पोस्ट के जरिये आपका मकसद नकारा-निकम्मे लोगों को प्रेरणा देना और उनमें देशभक्ति-कर्तव्यनिष्ठा की भावना जागृत करना है। सच बताइयेगा, क्या जो सोने का अभिनय कर रहें हैं उन्हें जगाया जा सकता है ? क्या उन लोगों में देशभक्ति-कर्तव्यनिष्ठा की उम्मीद दिखाई पड़ती है जो सिर्फ पैसों के लिए श्रम कर रहें हैं ? क्या वो लोग मानवीय नज़रिये से किसी बात को देखते हैं जिनका ईमान बाज़ार में बैठी किसी तवायफ की दहलीज़ पर नंगा पड़ा है ? क्या उनसे कोई उम्मीद की जा सकती है जो अपने-अपने आकाओं के जूतों की गर्द झाड़कर नौकरी की सलामती का ढोल पीट रहें हैं ? हम किसी ना किसी रूप में बेईमान हैं, जब भी देखता हूँ किसी बेईमान को तो सोचने लगता हूँ आखिर इसका अधिकतम मूल्य क्या होगा ? हालांकि इस तरह की जमात वालों का हुलिया ही उनकी कीमत का अघोषित टैग होता है। आपकी उस पोस्ट में पत्रकारों की मानसिकता और उनकी असंवेदनशीलता का जिक्र भी है। जरूरी भी है, पत्रकार ? इस दौर में पत्रकारिता की तलाश ठीक उसी तरह है जैसे किसी बच्चे के हाथ से मोबाइल छीनकर "चाचा चौधरी" वाला कॉमिक्स पकड़ा देना। सब प्रायोजित है, ठीक करने की मानसिकता से रंगा हुआ है। अब सामजिक सरोकार को कहीं कोई जगह नहीं मिलती, ना ख़बरों में न ही जनसेवा-देशभक्ति की शपथ लेने वालों में। ऐसे में आपकी अपील कितनी सार्थक होगी ? मैं नही बता सकता, पर यक़ीन मानिये यहाँ कोई नहीं सुनता, बस हम शोर मचाते रह जाते हैं। वैसे भी कुनबा जिनका बड़ा होता है वे अपने-अपने स्तर पर मजबूत होते हैं। ऐसे में हरियाणा के सोनीपत का ये जवान जिसका नाम राकेश कुमार है वो बारिश में भीगकर कर्तव्य की मिसाल पेश करे या फिर परिवार की खुशियों को ताक पर रख दें किसी को फर्क नहीं पड़ता। 
  एक बार फिर पुलिसकर्मी राकेश और मोहतरमा स्मिता जी को नमन जिन्होंने मानवीय संवेदनाओं के साथ-साथ कर्तव्यों की राह पर ईमानदारी से चलने की कम से कम कोशिश तो की है।